"बरखा-सी लागी निसि-बासर बिलोचननि,
बाढ्यो परबाह, भयो नावबि उतरिबो;
रह्यो जात कौन पै सुकबि 'मतिराम' अब,
बिरह-अनल-ज्वाल-जालनि ते जरिबो।
जैयत समीप, तौ उडैयत उसासन सों,
हमको तौ भयौ उत हेरत हहरिबो;
कियो कहा चाहत, सो कहौ न कुँवर कान्ह,
रह्यौ अब वाको उपचारनि को करिबो।"
(मतिराम)
मतिराम के छंद में नौका-शरीर की कमी है, तो शेक्सपियर के वर्णन में विरहानल-ज्वाला का अभाव है। शेष सामग्री प्रायः समान ही है। विरह-निवेदन-रूप में सखी द्वारा नायिका की इस व्याधि- दशा का नायक से बड़ा ही अनूठा वर्णन है। इसमें स्वाभाविकता है। उधर शेक्सपियर ने जूलियट की वैसी दशा का वर्णन कैपूलेट से करवाया है। भारतीय समाज-आदर्श के अनुसार पिता अपनी पुत्री का वर्णन इस प्रकार करने में अक्षम है। बिहारीलाल ने अपने एक दोहे में इस भाव को खूबी से दिखलाया है—
"प्रगटयौ आगि बियोग की, बहयो बिलोचन नीर;
आठौ जाम हियो रहै उड्यौ उसास-समीर।
(बिहारी)
रवींद्रनाथ टैगोर और मतिराम
"जीवन-धन, मम प्रान-पियारो सदा बसत हिय मेरे;
जहाँ बिलोकैं, ताकै ताको, कहा दुरि, कहँ नेरे।
आँखिन की पुतरिन मैं सोई सदा रहै छबि घेरे;
सुनन मधुर सुर गई दूरि कछलौटी अपने डेरे।