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समीक्षा

दिखलाई पड़ती है। परवर्ती कवि ने अनेक उपमाओं की चहल-पहल में मतिराम के भाव को छिपा डाला है।

मतिराम और शेक्सपियर

हिंदी-भाषा के मतिराम-जैसे सुकवियों के काव्य में अनेकानेक ऐसे भाव भी हैं, जो जगत्-प्रसिद्ध शेक्सपियर-जैसे महाकवियों की कविता में भी हैं। व्रज-भाषा-काव्य के समालोचक महानुभावगणों में से बहुत-से ऐसे भी हैं, जो उन्हीं भावों को शेक्सपियर में तो बड़े चाव से पढ़ते हैं, पर अपने यहाँ के श्रृंगारी कवियों में 'घणित विचार' कहकर तिरस्कृत करते हैं। पुस्तक-कलेवर-वृद्धि के भय से विवश होकर यहाँ हम मतिराम और शेक्सपियर के भाव-सादृश्यों के दो ही एक उदाहरण देकर संतोष करते हैं।

रोमियो और जूलियट-नामक प्रसिद्ध नाटक में एक स्थान पर प्रणयी अपनी प्रणयिनी को हाथ पर कपोल रक्खे देखता है। उसके हृदय में एक अपूर्व भाव का उदय होता है। वह कहता है—

"अहा! प्रियतमा कैसे अपने हाथों पर कपोल रक्खे हुए है। क्या ही अच्छा होता मैं उन हाथों का दस्ताना ही होता, जिससे मुझे कपोल-स्पर्श-सुख तो नसीब होता*[]।"

शेक्सपियर के इस अनूठे भाव की प्रशंसा करनी ही पड़ती है, पर मतिरामजी ने इसी भाव को विशेष सहृदयता और मर्मज्ञता से वर्णित किया है।

गोपिका के मन में तप करने की धुन इसलिये समाई है कि दूसरे


  1. *

    See, how she leans her cheek upon her hand!
    O, that I were a glove upon that hand,

    That I might touch that cheek!

    (Shakespeare)