यह स्पष्ट है कि परवर्ती कवि ने पूर्ववर्ती कवि के भाव को देखकर ही अपने छंद की रचना की है। सुकवि मतिराम के छंद में सरसता, मधुरता और स्वाभाविकता छलकी पड़ती है। प्रथम पद में प्रतीप की प्रतिष्ठा से नायिका का गौर वर्ण नेत्रों के सामने नृत्य करने लगता है। द्वितीय पद को पढ़कर किसी की आलस-भरी आँखों और विलासमयी चितवन का अनुभव-सा होने लगता है। अत्यंत मृदुल स्वभावोक्ति की झाँकी है। मीठे-मीठे स्मित के वश कौन नहीं हो जाता? तीसरे पद में लोकोक्ति के आश्रय से कवि ने नायिका की 'मुसकानि-मिठाई' का कैसा अनठा चित्र खींचा है! मिठाई का प्रभाव ही ऐसा है। कवि ने दूर से आपको नायिका के तप्त कांचन-सम गौर वर्ण, आलस-भरी, विलासमयी चितवन एवं मधुर मुस्किराहट के दर्शन करा दिए हैं। इनका आकर्षण स्वभावतः ऐसा है कि आप नायिका को निकट से देखने पर विवश हैं। बस, जैसे-जैसे आप उसे निकट से देखेंगे, तैसे-ही-तैसे आपको उसके अंग-प्रत्यंग की और भी अच्छाइयाँ स्पष्ट होती जायेंगी। कितनी अच्छी स्वाभाविकता की बहार है! बेनीप्रबीनजी के छंद में वह बात कहाँ है; उन्होंने तो आरंभ से ही सब अंगों की नाप-जोख आरंभ कर दी है। कहीं शरीर चंपक से सदृशता पाता है, तो नेत्र कमलों की बराबरी करते हैं। इसी प्रकार आनन और इंदु, नासिका तथा तिल-फूल एवं बाहु और मृणाल का साम्य उपस्थित किया गया है। यहाँ कोरी उपमा की बहार है। उपमाएँ भी वे ही बहुप्रचलित हैं। चतुर्थ पद तो मतिराम के छंद की छाया का पूरा पता देता है। पर छाया छाया ही है, वह मूल के अनुरूप कैसे हो सकती है? 'त्यों-त्यों लगे अति सुंदरताई', यह पद कुछ खटकता है। लगे का क्या अर्थ है, यह नहीं।जान पड़ता है, अथवा लगै से नीकी लगे का अभिप्राय है? हमें मतिराम के छंद में स्वाभाविकता और बेनीप्रबीन के छंद में कृत्रिमता
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मतिराम-ग्रंथावली