'कबि मतिराम होत हाँतो ना हिये तै नेक,
सुख प्रेम-गात को परस अभिराम को;
ऊधो, तुम कहत, बियोग तजि जोग करौ,
(मतिराम)
"प्रानन के प्यारे, तनु-ताप के हरनहारे,
नंद के दुलारे, ब्रजवारे उमहत हैं;
कहै 'पद्माकर', उरूझे उर-अंतर यों,
अंतर चहेहू ते न अंतर चहत हैं।
नैनन बसे हैं, अंग-अंग हुलसे हैं, रोम-
रोमनि रसे हैं, निकसे हैं, को कहत हैं?
ऊधो, वै गोबिंद कोई और मथुरा मैं, यहाँ
(पद्माकर)
दोनो छंदों में गोपियाँ वही बात उद्धवजी से कहती हैं। मतिरामजी के छंद में गोपियाँ विशेष घटना, विशेष अवसर और विशेष स्थान की रमणीयता का स्मरण रखती हुई अपनी उक्ति उपस्थित करती हैं, इसीलिये उसका हृदय पर विशेष प्रभाव पड़ता है। अनुप्रास के पीछे 'दीवाने' न होते हुए इनकी रचना में जो स्वाभाविक प्रवाह और माधुर्य है, वह पद्माकर के छंद में नहीं है। पद्माकरजी के छंद में अनुप्रास का चमत्कार विशेष अच्छा है, तन्मयता भी खूब है, पर कृत्रिमता भी आ गई है।
(२) "मानहु आयो है राज कछू, चढ़ि बैठत ऐसे पलास के खोढ़े;
गुंज गरे, सिर मोर-पखा, 'मतिराम' हौ गाय चरावत चाढ़े।
मोतिन को मरो तोरयो हरा, गहि हाथन सों रही चूनरी पोढ़े;
(मतिराम)