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मतिराम-ग्रंथावली

जाति के बहुत ही कम उड़ सकनेवाले चकोर पक्षी के उतने ऊँचे पहुँचने का कोई पर्याप्त कारण रघुनाथजी ने नहीं दर्शाया। 'मुड़ेरे' के स्थान में यदि किसी 'कंगूरे', 'छतरी' इत्यादि का प्रयोग होता, तो और भी रमणीय होता। मतिराम का भाव हमारी राय में विशेष अच्छा है।

(२) "असरन-सरन के चरन-सरन तके,
त्यों ही दीनबंधु निज नाम की सुलाज की;
धाए रतिमान अति आतुर गोपाल, मिली

बीच ब्रजराज को गरज गजराज की।"

(मतिराम)

"कठिन समै बिचारि, साहस सों गयो हारि,
हरि-पद-ध्यान 'रघुनाथ' ज्यों ही सरज्यो,
असरन-सरन की बिरद-परज देखौ,

पहिले गरज भई, पीछे गज गरज्यो।"

(रघुनाथ)

मतिरामजी के वर्णन में 'चंचलातिशयोक्ति' और रघुनाथजी के वर्णन में 'अत्यंतातिशयोक्ति' है। पर रघुनाथजी ने भाव साफ़ ही मतिरामजी का लिया है। मतिरामजी का वर्णन-क्रम, छंद की बंदिश, अनुप्रास-न्यास तथा उक्ति की रमणीयता, ये सभी रघुनाथजी से बढ़कर हैं। सहृदय पाठक स्वयं निर्णय कर लें।

(३) "हीरन-मोतिनि के अवतंसनि सोने के भूषन की छबि छावै;
हार चमेली के फूलनि के तिनमैं रुचि चंपक की सरसावै।
अंग के संग तैं केसरि-रंग की अंबर सेत मैं जोति जगावै;

बाल छबीली छपाए छपै नहिं, लाल! कहौ, अब कैसेक आवै?"

(मतिराम)


"सोनजुही की ह्वै जाति है, माल बनायकै मालती की पहिराइए;
मोती के भूषन भूषिए जे, पुखराज के ते सिगरे कहि गाइए।