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मतिराम-ग्रंथावली

 

मतिराम और तोष

मतिराम और तोष के भावों में भी कहीं-कहीं सादृश्य दिखलाई पड़ता है। तोषजी के 'सुधानिधि'-ग्रंथ में से संकलित करके दो-एक उदाहरण दिए जाते हैं-

(१) "यों 'मतिराम' भयो हिय मैं सुख बाल के बालम सों दृग जोरे;

ज्यों पट मैं अति ही चटकीलो चढ़ै रँग तीसरी बार के बोरे।"

(मतिराम)


"करि जाय बड़ाई, तिती करियो, तब आय सुअंग मैं रंग मढ़ै;

बिन ढंग भटू, पट हू मैं जथा बिनु तीसरे रंग ना रंग चढ़ै।"

(तोष)

अंतिम पद ही दोनो उक्तियों की जान है। मतिरामजी का उक्त पद तोष के वैसे ही पद से कहीं अच्छा बन पड़ा है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं।

(२) 'कबि मतिराम' होत हाँतो ना हिए ते नैक,
सुख प्रेमगात को परस अभिराम को;
ऊधो, तुम कहत, बियोग तजि जोग करौ,

जोग तब करैं, जो बियोग होय स्याम को।"

(मतिराम)


"'तोष' कबौ तन न्यारोई होत नहीं, ते कहूँ अब जाय सकैं जू;

साँचो सँजोग बियोग ही मैं, हम ऊधो, विभूति न लाय सकैं जू।"

(तोष)

तन्मयता की मात्रा मतिराम की उक्ति में विशेष है। गोपियाँ वियोग का अनुभव ही नहीं कर रही हैं, उन्हें तो संयोग-ही-संयोग दिखलाई पड़ता है। तोषजी के छंद में गोपियाँ वियोगावस्था को भूलती नहीं, पर उसे कारण-विशेष से संयोग से अच्छा समझती हैं। एक में संयोग-वियोग में कोई भेद नहीं रह जाता है, पर दूसरे में