भार के डरन सुकुमारि चारु अंगन मैं
करत न अंगराग कुंकुम को पंक है।
'कबि मतिराम' देखि बातायन बीच आयो,
आतप-मलीन होत बदन-मयंक है;
कैसे वह बाल लाल, बाहेर बिजन आवै,
(मतिराम)
दोनो ही कवियों ने नायिका की सुकुमारता को परा काष्ठा के दरजे तक दिखलाया है। दासजी के छंद में श्रृंगार का बोझ बढ़ जाता है; पर मतिरामजी के छंद में तो नायिका भार (बोझ) के डर से शरीर में अंगराग धारण ही नहीं करती। पहले छंद में नायिका दो-एक डग चलती तो है, पर दूसरे में तो वह भूमि पर चरण ही नहीं रखती है। दासजी के कथनानुसार दो-एक डग चलने से ही नायिका पसीने-पसीने हो जाती है; पर मतिरामजी की नायिका जिस कमरे में फूलों को शय्या पर विहार कर रही है, उसमें यदि खिड़की से कहीं थोड़ी-सी भी धूप आ जाती है, तो उसका चेहरा कुम्हला जाता है। खिड़की से आई हुई धूप की मामूली झलक भी नायिका को असह्य है। आतप से बदन-मयंक का मलिन होना कितना मर्मज्ञतामय है! धूप निकलते ही चंद्रदेव निष्प्रभ हो जाते हैं। एक कवि की नायिका की कमर पंखे की हवा से लचक जाती है, तो दूसरे की पंकज-वारि-बयारि से वही दशा होती है। पंकज-वारि-बयारि में शीतलता और सुगंधि भले ही हो; परंतु पंखे की सादी हवा से उसमें 'भारीपन' अवश्य ही कुछ अधिक होगा। इस दृष्टि से भी 'बिजन-बयारि' से लंक लचकना ही विशेष सुकुमारता दर्शित करता है। कविवर दासजी इस तुलना में भी मतिरामजी के पीछे ही रह गए।