पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१८६

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मतिराम-ग्रंथावली

१८२ मतिराम-ग्रंथावली मानिस कब की हौं हेरति, न हेरे हरि पावति हौं, __बछरा हिरान्यौ हो, हिराय नैक दीजिए।" ( मतिराम) देव और मतिराम के भाव-सादृश्य पर विचार करते समय पाठकों को इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि मतिरामजी पूर्ववर्ती और देवजी परवर्ती कवि हैं । इस कारण यदि एक-से भावों में अपहरण का संदेह किया जा सकता है, तो मतिराम अपहरण-दोष के दोषी नहीं ठहराए जा सकते। मतिराम और दास कविवर भिखारीदास और मतिरामजी के भावों में कहीं-कहीं सदृशता पाई जाती है। अनेक ऐसे भाव-सादृश्यों में से कुछ पाठकों के मनोरंजनार्थ नीचे उद्धृत किए जाते हैं । स्मरण रहे, मतिरामजी पूर्ववर्ती और दासजी परवर्ती कवि हैं- (१) "किसुक के फूलन के फूलन बिभूषित के बाँधि लीनी बलया, बिगत कीन्हीं बजनी; ता पर सवारयो सेत अंबर को डंबर, सिधारी स्याम-सन्निधि, निहारी काहू न जनी । छोर के तरंग को प्रभा की गहि लीन्हीं तिय, कोन्ही छोर-सिंधु छिति कातिक को रजनी; आनन-प्रभा ते तन-छाँह हूँ छपाए जात, भौंरन की भीर संग लाए जात सजनी।" (दास) "अंगन मैं चंदन चढ़ाय घनसार सेत, सारी छोर फेन-कैसी आभा उफनाति है; राजत रुचिर रुचि मोतिन के आभरन, कुसुम-कलित केस सोभा सरसाति है।