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मतिराम-ग्रंथावली

 

कब की हौं हेरति, न हेरे हरि पावति हौं,
बछरा हिरान्यौ हो, हिराय नैक दीजिए।"

(मतिराम)

देव और मतिराम के भाव-सादृश्य पर विचार करते समय पाठकों को इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि मतिरामजी पूर्ववर्ती और देवजी परवर्ती कवि हैं। इस कारण यदि एक-से भावों में अपहरण का संदेह किया जा सकता है, तो मतिराम अपहरण-दोष के दोषी नहीं ठहराए जा सकते।

मतिराम और दास

कविवर भिखारीदास और मतिरामजी के भावों में कहीं-कहीं सदृशता पाई जाती है। अनेक ऐसे भाव-सादृश्यों में से कुछ पाठकों के मनोरंजनार्थ नीचे उद्धृत किए जाते हैं। स्मरण रहे, मतिरामजी पूर्ववर्ती और दासजी परवर्ती कवि हैं—

(१) "किंसुक के फूलन के फूलन बिभूषित कै
बाँधि लीनी बलया, बिगत कीन्हीं बजनी;
ता पर सॅंवारयो सेत अंबर को डंबर,
सिधारी स्याम-सन्निधि, निहारी काहू न जनी।
छीर के तरंग की प्रभा की गहि लीन्हीं तिय,
कीन्ही छीर-सिंधु छिति कातिक की रजनी;
आनन-प्रभा ते तन-छाँह हूँ छपाए जात,

भौंरन की भीर संग लाए जात सजनी।"

(दास)


"अंगन मैं चंदन चढ़ाय घनसार सेत,
सारी छोर फेन-कैसी आभा उफनाति है;
राजत रुचिर रुचि मोतिन के आभरन,
कुसुम-कलित केस सोभा सरसाति है।