ऊधो, तुम कहत, बियोग तजि जोग करौ,
(मतिराम)
(३) दोनो कवियों की वचन-विदग्धाओं का भी एक-एक उदाहरण लीजिए। गोपिका बहाने के साथ श्रीकृष्ण को एकांत स्थल में ले जाना चाहती है। एक कवि गो-दोहन-कार्य का आश्रय लेकर और दूसरा जंगल में खोए हुए बछड़े को ढूंढने का कथन करके इस भाव को दिखलाता है। एक छंद में सूर्योदय के पहले ही जाकर गोपिका कृष्णचंद्र से गोदोहन के लिये कहती है, तथा दूसरे में संध्या-समय बछड़े के ढुंढ़ाने की प्रार्थना है। दोनो ही उक्तियाँ परम रसीली हैं। लेखक की राय में मतिराम की उक्ति में कुछ स्वाभाविकता विशेष है—
"ननॅंद उठाई, उन सोवत उठाई सासु,
पेलिकै पठाई अधरातक अँध्यारेई;
रैहौं ना बिठाई, हौंही जाऊँगी पठाई तुम्हैं,
उत वै हठीलो हठ मोहीं सो पसारेई।
पीतंबर खोलौ, मुख देखौ हौं तिहारो नेक,
देखो, भोर भयो जू बनैगो पगु धारेई;
चोखी जाति गैया, कोई और न दुहैया 'देव',
देवर कन्हैया कहा सोवत सवारेई।"
(देव)
"आई ह्वै निपट साँझ, गैया गई घर माँझ,
हाँतै दौरि आई कहै मेरो काम कीजिए;
हौं तौ हौं अकेली और दूसरो न देखियत,
बन की अँध्यारी सों अधिक भय भीजिए।
कबि 'मतिराम' मनमोहन सों पुनि-पुनि
राधिका कहति बात साँची कै पतीजिए;