देवजी ने मतिराम के 'रसना दसन दाबै रसना-झनक ते' पद को एक छंद में अपनाया है। देवजी की नायिका को भी लज्जा-वश होकर ही दाँतों तले जीभ दबानी पड़ी है, पर यह लज्जा दूसरे ही प्रकार की है। "सुरतारम्भगोष्ठयादावश्लीलत्वं तथा पुनः" नामक साहित्य-दर्पण की कारिका से देवजी अश्लीलत्व-दोष से भले ही छुटकारा पा जायँ, परंतु तुलना के समय स्वाभाविक वर्णन एवं निर्दोष भाव के परिस्फुटन में मतिरामजी देव से आगे हैं। हाँ, शब्द- चमत्कार में अवश्य ही देवजी ने मतिराम को दबा दिया है। देवजी की मनो-मोहिनी उक्ति इस प्रकार है—
"नेवर के बजत कलेवर कँपत 'देव',
देवरु जगै, न लग सोवत तनक ते;
ननद नछीछी त्योरी तोरति तिरीछी लखि,
बीछी-कैसो बिष बगरावैगी भनक ते।
देखिए कठिन साथ, गहौजू न हठि हाथ,
कैसे कहौं जाहु नाथ, आए हौ बनक ते;
बस ना हमारे रंग, रसना बनत चौंकि,
रसना दसन दाबै रसना-झनक ते।"
मतिरामजी ने 'रसना' का प्रयोग दो बार करके यमक का चमत्कार दिखलाया था। देवजी ने उसका प्रयोग एक बार और अधिक किया है। मतिरामजी की नायिका को किंकिणी-शब्द के कारण मार्ग में ही लज्जा ने आ घेरा है, परंतु देवजी की नायिका प्रियतम सन्निकट होती हुई, रसना शब्द से चौंकती है। पहले छंद में नायिका का नायक के पास गमन हुआ है, और दूसरे में नायक नायिका के पास 'बनक' से गया है। पहले छंद में नायिका को गुरुजन की लज्जा दबाए डालती है, पर दूसरे छंद में देवर और ननद का ही डर है।
श्रृंगारी कवियों में देवजी का स्थान मतिरामजी से ऊँचा है, फिर भी उपर्युक्त दोनो छंदों में मतिरामजी ही सिरे हैं।