पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१८३

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समीक्षा

समीक्षा १७९ देवजी ने मतिराम के 'रसना दसन दाबै रसना-झनक ते' पद को एक छंद में अपनाया है । देवजी की नायिका को भी लज्जा-वश होकर ही दाँतों-तले जीभ दबानी पड़ी है, पर यह लज्जा दूसरे ही प्रकार की है । "सुरतारम्भगोष्ठ्यादावश्लीलत्वं तथा पुनः" नामक साहित्य- दर्पण की कारिका से देवजी अश्लीलत्व-दोष से भले ही छुटकारा पा जाये, परंतु तुलना के समय स्वाभाविक वर्णन एवं निर्दोष भाव के परिस्फुटन में मतिरामजी देव से आगे हैं। हाँ, शब्द-चमत्कार में अवश्य ही देवजी ने मतिराम को दबा दिया है। देवजी की मनो- मोहिनी उक्ति इस प्रकार है- "नेवर के बजत कलेवर कैंपत 'देव', देवरु जगै, न लग सोवत तनक ते; ननद नछीछी त्योरी तोरति तिरीछी लखि, बीछी-कैसो बिष बगरावैगी भनक ते । देखिए कठिन साथ, गहौजू न हठि हाथ, कैसे कहीं जाहु नाथ, आए ही बनक ते; बस ना हमारे रंग, रसना बनत चौंकि, रसना दसन दाब रसना-झनक ते।" मतिरामजी ने 'रसना' का प्रयोग दो बार करके यमक का चमत्कार दिखलाया था। देवजी ने उसका प्रयोग एक बार और अधिक किया है । मतिरामजी की नायिका को किंकिणी-शब्द के कारण मार्ग में ही लज्जा ने आ घेरा है, परंतु देवजी की नायिका प्रियतम के सन्निकट होती हुई, रसना-शब्द से चौंकती है। पहले छंद में नायिका का नायक के पास गमन हुआ है, और दूसरे में नायक नायिका के पास 'बनक' से गया है । पहले छंद में नायिका को गुरुजन की लज्जा दबाए डालती है, पर दूसरे छंद में देवर और ननद का ही डर है । ___शृंगारी कवियों में देवजी का स्थान मतिरामजी से ऊँचा है, फिर भी उपर्युक्त दोनो छंदों में मतिरामजी ही सिरे हैं ।