(३)
महलनि ऊपर जहँ बने कंचन-कलस अनूप;
निज प्रभानि सों करत हैं गगन पीत अनुरूप।
(४)
"बिपिन-सरन कै चरन तकौ राव ही के,
चढ़ौ गिरि पर, के तुरंग परवर मैं;
राखौ परिवार को कि आपनीयै हठ राज,
संपति दै मिलौ, कै नगारे दै समर मैं।
कहै 'मतिराम' रिपु-रानी निज नाहनि सों,
बोलैं यों डरानी भावसिंहजू के डर मैं;
बैर तो बढ़ायो, कह्यौ काहू को न मान्यो, अब
(मतिराम)
ऊपर दिए हुए पहले तीन वर्णन क्रम से रायगढ़ और बूंदी के राजमहलों के हैं। भूषणजी मंदिरों में होनेवाली मृदंग-ध्वनि की तुलना धन-गर्जन से करते हैं। मतिरामजी उसी ध्वनि का प्रभाव यों बतलाते हैं कि मयूर नाचने लगते हैं। मयूर भी वे, जो गृह में पालित हैं। गृह-मयूर मतलब से खाली नहीं हैं। हमें तो भूषण के 'घन-पटल-गल गाजहीं' से मतिराम का 'मधुर मृदु सोर' अच्छा मालूम होता है। दूसरे वर्णन में वैसा सादृश्य नहीं है, पर मतिराम का वर्णन स्वाभाविक विशेष है। तीसरे वर्णन में कंचन-कलशों का अपनी पीत प्रभा से गगन को पीत करना जितना सरल और मनोरम है, उतना भूषण का तादृश वर्णन नहीं। मतिराम का चौथा वर्णन तो भूषण के वैसे ही वर्णन से सभी प्रकार से अच्छा बन पड़ा है। इन दोनो भाइयों के अन्य कई वर्णनों में भी भाव-सादृश्य है। उनकी तुलना पाठकगण अन्यत्र पढ़ें। यद्यपि रौद्र और भयानक वर्णन करने में