'आलम' सुकबि कहै, तन-बीच कान्ह-छबि,
जोग देन आए तुम, कहा हम जोगी हैं;
जोग तौ सिखावै ताहि, जोग की जुगति जानै,
जोग को न काज हम बंसी-रस भोगी हैं।"
भूषण और मतिराम
(१)
"उत्तंग मरकत - मंदिरन महॅं बहु मृदंग जु बाजहीं;
घन समे मानहुँ घुमारि करि घन घन-पटल-गल गाजहीं।"
(२)
"मुकतानि की झालरनि मिलि मनि-माल छज्जा छाजहीं;
संध्या-समै मानहु नखतगन लाल अंबर राजहीं।"
(३)
"भूवन भवन, जहँ परसिकै मणि पुहुप रागन की प्रभा;
प्रभु पात पट की प्रगटः पावन सिंधु मेधन की सभा।"
(४)
"देसन - देसन नारि-नरेसन भूखन यों सिख देहि दया सों,
मंगन है करि दंत गहौ तिन कंत तुम्हैं है अनंत महा सों;
कोट गहो कि गहौ बन-ओट कि फौज की जोट सजौ प्रभुता सों,
(भूषण)
(१)
"जहाँ छहौ ऋतु मैं मधुर सुनि मृदंग मृदु सोर;
संग ललित ललनान के नृत्य करत गृह-मोर।"
(२)
"सरद बारिधर-से लसत अमल धौरहर धौल;
चित्रनि चित्रित सिखर जहँ इंद्र-धनुष-से नौल।"