पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
मतिराम-ग्रंथावली

  "कवि की वाणी जिस सृष्टि का स्रजन करती है, उसमें भाग्य के नियमों का बंधन नहीं होता है। इस भारती का संपूर्ण सारभूत पदार्थ एकमात्र आनंद है। यह परतंत्र नहीं है। नवरसमयी होने के कारण यह परम चिरा है*[]।"

"लोकोत्तर वर्णन में निपुण कवि का कर्म काव्य है। कविता समझते ही रसास्वादन-समुद्भूत जो आनंद तत्काल ही उत्पन्न होता है, वही कविता संबंधी सब प्रयोजनों में सर्वश्रेष्ठ है+[]।"

"जिस आनंद की मूर्ति नहीं बनी है, उसका अवश्य ही स्रजन होना चाहिए। वह स्वरूप आकृति में परिणत किया जाना चाहिए। गायक के आनंद का दर्शन हमें गीत-रूप में होता है, और कवि के आनंद का कविता-रूप में। स्रजन का कार्य करते हुए मनुष्य नाना प्रकार की आकृतियाँ निर्माण किया करता है। इन सबका प्रादुर्भाव निस्सीम आनंद से होता है‡[]।"


  1. *

    नियतिकृतनियमरहितां ह्लादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम् ; नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेः (जयति)।

  2. +·····सकल प्रयोजनमौलिभूतं समतन्तरमेव रसास्वादनसमुद्भूतं विगलितवेद्यान्तरमानन्दं·····यत्काव्यं लोकोत्तरवर्णनानिपुणकविकर्म·····

    —मम्मट

  3. ‡The joy, which is without form, must create, must translate itself into forms. The joy of the singer is expressed in the form of a song, that of the poet in the form of a poem. Man in his role of a creator is ever creating forms, and they come out of his abounding joy. A thing is completely our own when it is a thing of jay to us.

    —Ravindra Nath.