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मतिराम-ग्रंथावली

 

"जावक-रंग रँगे पद-पंकज नाह को चित्त रँग्यो रँग यातैं;
अंजन दैकरि नैननि मैं सुखमा बढ़ी स्याम-सरोज प्रभातैं।
सोने के भूषन अंग रच्यो, 'मतिराम' सबै बस कीबे की घातैं;
यों ही चलैं, न सिंगार सुभावहिं, मैं सखि, भूलि कहीं सब बातैं।"

उपर्युक्त उदाहरणों से पाठकगण निश्चय कर सकते हैं कि कविवर मतिरामजी बिहारीलाल से बहुत पीछे नहीं रह जाते।

मतिराम और आलम

'आलम-केलि' और 'रसराज' को साथ-साथ पढ़िए, तो आपको भाव-सादृश्य के अनेक उदाहरण मिलेंगे। यदि मतिरामजी कहते हैं कि—

"पानिप बिमल की झलक झलकन लागी,
काई-सी गई है लरिकाई मिटि अंग ते।"

तो हम आलम को भी वयःसंधि के वर्णन में ठीक यही बात कहते पाते हैं। उनके कथन को सुनकर कौन न कहेगा कि दोनो भाव एक हैं। देखिए—

"आलम उमॅगि रूप-सोना-सरवर भरयो,
पानिप ते काई लरिकाई मिटि गई है।"

मतिरामजी का अन्यसंभोगदुःखिता नायिका का उदाहरण लीजिए—

"याही को पठाई, बड़ो काम करि आई, बड़ी
तेरी है बड़ाई, लख्यो लोचन लजीले सों;
साँची क्यों न कहै, कछु मोको किधौं आपुही को,
पाई बकसीस, लाई बसन छबीले सों।
'कबि मतिराम' मोसो कहत सँदेसोऊ न,
भरे नख-सिख अंग हरख कटीले सों;