पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१७४

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AADHAAREESORRELA f insteintimedientrasaleeliminatentarietneloitendinamureenthindipikakaitinoisaste Panoransentinentallatinutrientereo itarabnamaARSundation १७० मतिराम-ग्रंथावली चाहते हैं कि मतिरामजी के दोहे में आगतपतिका नायिका एवं रूपक- अलंकार का संपूर्ण निर्वाह हुआ है। (२) बेचारे नेत्रों के भाग्य में सुख का अभाव ही समझ पड़ता है । जब प्रियतम से साक्षात् होता है, तब लज्जा एवं आनंदाश्रु-प्रवाह के कारण उनके दर्शन सम्यक नहीं हो पाते, और वियोग में तो सदा रोना-ही-रोना रहता है । इस भाव को बिहारीलाल ने अपने दोहे में यों अभिव्यक्त किया है- "इन दुखिया अँखियान को सुख सिरजोई नाहि देखे बन न देखते, बिन देखे अकुलाहिं।" मतिरामजी इसी भाव को यों दर्शित करते हैं- "बिन देखे दुख के चहि, देखे सुख के जाहि; कहहु लाल, इन दृगन के अँसुवा क्यों ठहराहिं ?" दोनो में किसका भाव उत्कृष्ट है, इसका भार हम फिर सहृदय पाठकों की रुचि पर छोड़ते हैं। (३) प्रौढ़ाधीरा नायिका नायक को अपराधी पाकर भी अपने क्रोध को प्रकट नहीं कर रही है, परंतु उसकी रति-संबंधिनी उदा- सीनता से नायक को उसका मान अवगत हो जाता है। इसी दशा का चित्र कविवर बिहारीलाल यों खींचते हैं- "चितवनि रूखे दृगन की, हाँसी बिनु मुसकानि; मान जनायो मानिनी, जानि लियो पिय जानि !" . इस भाव को मतिरामजी ने 'रसराज' की एक घनाक्षरी में बड़े ही अच्छे ढंग से दिखलाया है । घनाक्षरी का अंतिम पद यह है- "कहा चतुराई ठानियत प्रानप्यारी, तेरो ___मान जानियत रूखी मुख-मुसकानि सों।" घनाक्षरी के अतिरिक्त एक अन्य दोहे में इस भाव को मति- रामजी ने और भी मार्मिकता से व्यक्त किया है-