रसखान ने जो बात स्पष्ट शब्दों में कह दी है, उसी को मतिराम ने घुमा-फिराकर ऐसे ढंग से कहा है कि चमत्कार बढ़ गया है। रसखानजी की राय में सारे व्रज-मंडल में कोई भी 'भटू' ऐसी नहीं है, जिसे कृष्णचंद्र ने 'लटू' न किया हो। अर्थात् सभी पर व्रजराज का स्पष्ट प्रभाव है, पर मतिरामजी उन व्रज-बालाओं को शाबाशी देने के लिये तैयार हैं, जो व्रजराज को देख चुकने के बाद भी लज्जा को सँभालती हुई गृह-काज में लगी पाई जायँ। इसका तात्पर्य यह है कि मनमोहन के दर्शन के बाद व्रजयुवती का अपने आपे में रहना असंभव है। हमारी राय में मतिराम के कहने का ढंग रसखान से अच्छा है।
बिहारी और मतिराम
कविवर बिहारीलाल और मतिरामजी ने प्रायः एक ही समय में कविता की है। दोनो ही प्रतिष्ठित राजघरानों के आश्रित कवि थे। 'जयपुर' और 'बूंदी' राजपूताने के चिरप्रसिद्ध राज्य हैं। यहाँ के शासक बड़े ही गुणी और गुणग्राहक रहे हैं। हिंदी-साहित्य दोनो ही दरबारों से लाभान्वित हुआ है। बिहारीलाल महाराजा जयसिंह जयपुर नरेश के आश्रित थे, और मतिरामजी बूंदी-नरेश भावसिंहजी के। उभय कविवरों ने अपनी कविता का अधिकांश भाग श्रृंगार रस के सत्कार में नियोजित किया है। दोनो ही कवि पक्के श्रृंगारी हैं। दोनो कवियों ने मधुर व्रजभाषा में अपना काव्य संपादित किया है। बिहारीलाल ने अपनी समग्र कविता दोहा और सोरठा-छंदों में निबद्ध की है; परंतु मतिरामजी ने घनाक्षरी, सवैया, छप्पय, सोरठा एवं दोहा आदि कई छंदों का प्रयोग किया है। मतिरामजी ने नायिका-भेद, अलंकार एवं पिंगल-शास्त्र समझानेवाले ग्रंथ भी बनाए हैं। कुछ विद्वानों की राय है कि बिहारीलाल के दोहे हिंदी साहित्य में अपना जोड़ नहीं रखते। हिंदी-साहित्य में बिहारी सतसई सचमुच