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समीक्षा

जो प्रायः इसीसे मिलता-जुलता छंद है, उसे इसे ही देखकर बनाया है। वह छंद इस प्रकार है—

"जोर दल जोरि साहिजादो साहिजहाँ जंग,
जुरि मुरि गयो, रही राव मैं सरम-सी;
कहै ‘मतिराम' देव-मंदिर बचाए जाके,
बर बसुधा मैं बेद-स्त्रुति-बिधि यों बसी।
जैसो रजपूत भयो भोज को सपूत हाड़ा,
ऐसो और दूसरो भयो न जग मैं जसी;
गायनि को बकसी कसायनि की आयु सब,
गायनि की आयु सो कसायनि को बकसी।"

कहते हैं, 'रावरतन' ने भी दिल्लीश्वर से यह प्रतिज्ञा करा ली थी कि उनके शिविरों के निकट कभी गोवध न होगा। संभवतः उसी घटना का निर्देश करते हुए मतिरामजी ने यह रचना की है। जो हो, छंद के अंतिम पद में ही चमत्कार है।

रसखान और मतिराम

रसखान और मतिराम की कविता में भी कहीं-कहीं भाव-सादृश्य पाया जाता है। यहाँ केवल एक उदाहरण दिया जाता है—

"कौन ठगोरी-भरी हरि आज बजाई है बाँसुरिया रस-भीनी;
तान सुनी जिन हीं जितहीं, तिनहीं, तित लाज बिदा करि दीनी।
घूमें खरी-खरी नंद के बार नबीनी कहा अरु बाल प्रबीनी;

या ब्रजमंडल मैं 'रसखान' सु कौन भटू, जु लटू नहिं कीनी?"

(रसखान)


"आननचंद निहारि-निहारि नहीं तन औ धन जीवन वारैं;
चारु चितौनि चुभी 'मतिराम' हिए, मति को गहि ताहि निकारैं।
क्यों करि धौं मुरली, मनि-कुंडल, मोर-पखा, बनमाल बिसारैं;

ते धनि, जे ब्रजराज लखैं, गृह-काज करैं अरु लाज सँभारैं।"

(मतिराम)