पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१६९

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समीक्षा

अवश्य प्रकट है कि आग लग गई है। रहीमजी के उर में आग लगने की किसी विशेष दशा का पता नहीं है, परंतु मतिरामजी के हृदय में आग लगने के पहले नेत्रों का सम्मिलन, मुख का मोड़ना, हँसी और थोड़ा-सा स्नेह का संचार भी हुआ है। अपने-अपने ढंग से दोनो ही भाव अच्छे हैं।

(२) "करत न हिय अपरधवा सपनेहु पीय;
मान-करन की बिरियाँ रहिगो हीय।"

(रहीम)


"सपने हूँ मनभावतो करत नहीं अपराध;

मेरे मन ही मैं रही सखी, मान की साध।"

(मतिराम)

यद्यपि दोनो पद्यों का भाव बिलकुल एक ही है, फिर भी मतिराम ने अपने दोहे की अंतिम पंक्ति में जो मधुरता और स्वाभाविकता भर दी है, वह रहीम के बरवै की अंतिम पंक्ति में नहीं है।

(३) "सुभग बिछाय पलैंगिया, अंग-सिंगार;
चितवति चौंक तरुनियाँ दै दृग-द्वार।"

(रहीम)


"सुंदरि सेज सँवारिकै साजे सबै सिंगार;

दृग-कमलन के द्वार मैं बाँधे बंदनवार।"

(मतिराम)

यद्यपि मतिराम और रहीम दोनो के भाव बिलकुल एक ही हैं, फिर भी मतिराम ने दोहे की अंतिम पंक्ति में अपनी योग्यता का परिचय अपूर्व रीति से दिया है। द्वार की ओर नायिक के नेत्र-कमलों का सतत प्रक्षिप्त होना कवि ने बंदनवार बँधवाकर ऐसा अभिव्यक्त किया है कि उनकी मार्मिकता पर मुग्ध हो जाना पड़ता है। बंदन-वार कई भावों का द्योतन कराता है। बंदनवार का बंधना किसी