पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१६६

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Skil Sy- a pRACinnamaASANAINAMAALA १६२ मतिराम-ग्रंथावली किधौं मृगलोचनि, मरीचिका मरीचि किधौं, __ रूप की रुचिर रुचि सुचि सों दुराई है। सौरभ की सोभा की, दसन घनदामिनी की 'केसव' चतुर चित ही की चतुराई है ; एरी गोरी भोरी ! तेरी थोरी-थोरी हाँसी मेरी मोहन की मोहनी कि गिरा की गोराई है।" (केशव) उपयुक्त छंद में 'गोरी की थोरी-थोरी हाँसी' के संबंध में जो अनेक संदेह कवि ने उठाए हैं, वे सभी मार्के के हैं, परंतु इस मंद हास्य के संबंध में गिरा की गोराई और मोहन की मोहनी होने का संदेह उठाकर कवि ने अपनी प्रखर प्रतिभा का बड़ा ही सुंदर परिचय दिया है। निस्संदेह केशवदास के इस छंद का अंतिम पद बड़ा ही भव्य है। अब मतिराम के हस्तलाघव को देखिए। कैसी सुमति का विकास है ! "बानी को बसन कैथों बात के बिलास डोलै, ___ कंधों मुख-चंद्र चारु चंद्रिका-प्रकाश है; कबि 'मतिराम' कधों काम को सुजस के पराग-पुंज' प्रफुलित सुमन-सुबास है। नाक-नथुनी के गजमोतिन की आभा कैधों देहवंत प्रकटित हिए को हुलास है; सीरे करिबे को पिय-नैन धनसार कैधों बाल के बदन बिलसत मृदु हास है।" _ (मतिराम) हमारी राय में केशवदास की 'गिरा की गोराई मतिराम के 'बानी के बसन' से अच्छी है; परंतु पूर्ववर्ती कवि की 'चतुर चित्त की चतुरता' से परवर्ती कवि का 'देहवंत हिए को हुलास' विशेष उल्लास-