समीक्षा १५७ (२) हरिल पक्षी के लिये यह लोक-प्रसिद्धि है कि वह जिस लकड़ी या तिनके को अपने पंजों में दाब लेता है, उसे फिर छोड़ता नहीं। जैसे हरिल का इस लकड़ी के प्रति भाव होता है, वैसा ही भाव किसी बात या प्राणी के प्रति नायक-नायिका में भी पाया जा सकता है। इसी विचार से किसी के प्रति अत्यंत अनुराग या घोर हठ को सूचित करने के लिये 'हरिल की लकरी' से उपमा दी जाती है। यह उपमा बहुप्रचलित नहीं है, फिर भी कई कवियों ने इसका व्यव- हार किया है । महात्मा सूरदास और कविवर मतिराम ने इस उपमा का व्यवहार किया है। सूर की गोपियों के 'हरि हारिल की लकरी' हो रहे हैं, तो मतिराम की नायिका का हठ 'हारिल की लकरी' हो रहा है- "हमारे हरि हारिल की लकरी । मन-क्रम-बचन नंदनंदन-उर यह दृढ़ करि पकरी; जागत-सोवत-स्वप्न, दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।" (सूर) "आयो है सयानपन, गयो है अजान मन, तौह उठि मान करिबे की टेक पकरी; घर-घर मानिनी हैं, मानती मनाए ते वै, तेरी-ऐसी रीति और काहू में न जकरी। 'कबि मतिराम' काम-रूप घनस्याम लाल, तेरी नैन-कोर ओर चाहें एकटक री; हा-हा के निहोरेहू न हेरति हरिन-नैनी, काहे को करत हठ हारिल को लकरी।" (मतिराम) (३) मतिराम और सूर, दोनो ही कवियों ने मोती को धुंघची
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