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समीक्षा

 

परमोहनाय मुक्तो निष्करुणे तरुणि तव कटाक्षोऽयम्;
विशिख इव कलितकर्णः प्रविशति हृदयं न निःसरति।

(आर्यासप्तशती ३५५)

"आलस-बलित, कोरैं काजर-कलित
'मतिराम' वै ललित अति पानिप धरत हैं;
सरस सरस सोहैं, सलज, सहास,
सगरब, सबिलास ह्वै मृगनि निदरत हैं।
बरुनी सघन, बंक, तीछन कटाछ बड़े,
लोचन रसाल उर पीर ही करत हैं;
गाढ़े ह्वै गड़े हैं, न निसारे निसरत, मैन-
बान-से बिसारे, न बिसारे बिसरत हैं।"

(मतिराम)

आर्या के 'कलितकर्ण' की घनाक्षरी में विशद व्याख्या हुई है। 'परमोहनाय' का भाव 'बिसारे, न बिसारे बिसरत हैं' इन पदों द्वारा भली भाँति परिस्फुटित हो गया है। 'प्रविशति हृदयं न निःसरति' का तो 'गाढ़े ह्वै गड़े हैं, न निसारे निसरत' पद-समूह एक प्रकार का अनुवाद ही है। गोवर्द्धनाचार्य के 'विशिख' को मतिराम ने 'मैन-बान' कर डाला है। आर्या के 'निष्करुण' को हम घनाक्षरी के 'उर पीर ही करत हैं' में स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित पाते हैं। पूर्ववर्ती कवि का प्रधान लक्ष्य कटाक्ष-वर्णन है; पर परवर्ती कवि रसाल लोचन का आलोचन करता है। 'मैन-बान' और 'रसाल लोचन' का सुंदर साम्य मतिराम ने अपने प्रथम तीन पदों में खूब सुंदर दिखलाया है।

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