पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१५९

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समीक्षा

समीक्षा १५५ परमोहनाय मुक्तो निष्करुणे तरुणि तव कटाक्षोऽयम्; विशिख इव कलितकर्णः प्रविशति हृदयं न निःसरति । (आर्यासप्तशती ३५५) "आलस-बलित, कोरै काजर-कलित 'मतिराम' वै ललित अति पानिप धरत हैं; सरस सरस सोहैं, सलज, सहास, सगरब, सबिलास है मृगनि निदरत हैं। बरुनी सघन, बंक, तीछन कटाछ बड़े, ___लोचन रसाल उर पीर ही करत हैं। गाढ़े है गड़े हैं, न निसारे निसरत, मैन- बान-से बिसारे, न बिसारे बिसरत हैं।" (मतिराम) आर्या के 'कलितकर्ण' की घनाक्षरी में विशद व्याख्या हुई है। 'परमोहनाय' का भाव 'बिसारे, न बिसारे बिसरत हैं' इन पदों द्वारा भली भाँति परिस्फुटित हो गया है । 'प्रविशति हृदयं न निःसरति' का तो गाढ़े कै गड़े हैं, न निसारे निसरत' पद-समूह एक प्रकार का अनु- वाद ही है । गोवर्द्धनाचार्य के 'विशिख' को मतिराम ने 'मैन-बान' कर डाला है। आर्या के 'निष्करुण' को हम घनाक्षरी के 'उर पीर ही करत हैं' में स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित पाते हैं । पूर्ववर्ती कवि का प्रधान लक्ष्य कटाक्ष-वर्णन है; पर परवर्ती कवि रसाल लोचन का आलोचन करता है । 'मैन-बान' और 'रसाल लोचन' का सुंदर साम्य मतिराम ने अपने प्रथम तीन पदों में खूब सुंदर दिखलाया है । सूर और मतिराम हिंदी-साहित्य-संसार के सूर्य महात्मा सूरदास और मतिराम की कविता की तुलना ही क्या ? पर उभय कवियों के भाव-सादृश्य से