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समीक्षा

  मतिरामजी ने इस भाव को इसी प्रकार से अपने दोहे में यों अभिव्यक्त किया है—

"सुधा-मधुर तेरो अधर, सुंदर सुमन सुगंध;
पीव जीव को बंधु है, बंधुजीव को बंध।"

४. "दृष्टिर्वन्दनमालिका, स्तनयुगं लावण्यपूर्णौ घटौ,
शुभ्राणां प्रकटः स्मितः सुमनसां वक्त्रप्रभादर्पणः;
रोमाञ्चोद्गम एवं सर्षपकणः, पाणी पुनः पल्लवौ,
स्वाङ्गैरेव गृहप्रियस्य विगतस्तन्व्या कृतं मङ्गलम्।"

भावार्थ—"जब प्रियतम घर में प्रवेश करने लगा, तो उसकी प्रियतमा ने अपने अंगों ही से यथोचित मंगलाचार पूरा किया। उसके एकटक देखने ने बंदनवार का, दोनो स्तनों ने लावण्य-रूपी जल से भरे हुए दो घड़ों का, मुस्किराहट ने सफ़ेद फूल की वर्षा का, मुख की कांति ने दर्पण का, रोमांच ने सरसों के कणों का, हाथों ने पल्लवों का काम दिया।"

(अनुवादक—पं॰ जनार्दन भट्ट एम॰ ए॰)

मतिराम के दोहे में भी नायिका 'स्तनयुगं लावण्यपूर्णौ घटौ' के रूप में दर्शाती है। पर आगमन के समय नहीं, वरन् नायक के विदेश-यात्रा करने को उद्यत होते समय और आश्चर्य-घटना यही होती है कि ऐसे शुभ शकुन को देखते हुए भी नायक अपनी यात्रा रोक देता है। मतिराम का कौशल ऐसा ही है, यथा—

"पिय राख्यो परदेस तै अति अद्भुत दरसाय—
कनक कलश पानिप-भरे सगुन उरोज दिखाय।"

५. प्रफुल्लचूताङ्कु रतीक्ष्णशायको द्विरेफमालाविलसद्धनुर्गुणः;
मनांसि वेद्धुं, सुरतप्रसङ्गिनां वसन्तयोद्धः समुपागतः प्रिये।"

(कालिदास)

अर्थ—"हे प्यारी, वसंत-रूपी वीर आ गया। बौरे आम के अंकुर