साहचर्य न होने से केवल कोकिल-कपोत-कूजन का उल्लेख हुआ है। यह कूजन प्रखर होने पर भी प्रणयियुग्म के आनंदवर्द्धन का हेतु है। उनको बुरा नहीं लगता। 'सरसाति' क्रिया इसी भाव को अभिव्यक्त करती है।
इस पद में एक शब्द भी व्यर्थ का नहीं है। यही क्यों, प्रयुक्त शब्दों का संगठन इतना सुंदर और सुदृढ़ है कि यदि इस पद का एक भी शब्द उठाकर उसके स्थान में दूसरा शब्द रक्खा जाय, तो पद की रमणीयता को अवश्य धक्का पहुँचेगा। अव्यर्थपदत्व-गुण की यही खूबी है।
२. "छाई रहै जहाँ द्रुम-बेलिन सों मिलि,
'मतिराम' अलि-कुल मैं अँध्यारी अधिकाति है।"
किसी बीहड़ स्थान पर, जहाँ दो-एक फुटकर वृक्ष उगे हों, वहाँ भी कोकिल-कपोत-ध्वनि की संभावना है। पर्वतों की दरारों, टूटे-फूटे खंडहरों एवं और भी ऐसे ही सुनसान अरमणीय स्थानों में कबूतरों का निवास प्रायः देखा जाता है। मतिरामजी का सहेट ऐसा नहीं है। पहला पद पढ़कर कदाचित् कोई ऊपर लिखे 'भयंकर' सहेट का अनुमान करें, सो इस दूसरे पद द्वारा कवि ने अस्पष्ट कर दिया कि सहेट स्थान में प्रकृति- सुंदरता का अभाव नहीं है। लता-वेष्टित वृक्षों का उल्लेख संयोग और उद्दीपन का बोध कराता है। अलि-कुल के आधिक्य से अँधियारी का बढ़ना प्रणयियुग्म के लिये हितकारी है, एवं (पराग-मकरंद के आकर्षण से) भ्रमरों का सहेट में पाया जाना पुष्प प्रचुरता का पहले से ही अनुमान दृढ़ कराता है। उद्दीपन के लिये यह भाव भी खूब उपकारी है। इस पद में भी कोई शब्द व्यर्थ में नहीं आया है। सब अपने-अपने स्थान पर स्थित भाव को जगमगा रहे हैं। 'मतिराम' शब्द कवि का नाम होने से यदि अन्य प्रकार से भाव की सहायता न भी करता हो, तो भी क्षम्य है।