इस प्रकार उपर्युक्त दोहे में शुद्ध स्वकीया आधारवाचक पात्र है, तथा पूर्णं श्रृंगार रस है। वैदर्भी रीति, मधुरा वृत्ति एवं प्रसाद-गुण है। कई अलंकारों में उल्लेख सम, परिसंख्या और वृत्त्यनुप्रास प्रधान हैं, फिर भी वाच्यार्थ प्रधान होने से यह मध्यम काव्य है। मतिरामजी के व्यंग्यप्रधान उत्तम काव्य का उदाहरण अन्यत्र देखिए। इस दोहे की उत्तमता के क़ायल बड़े-बड़े कवि हैं। अनेक कवियों ने इसी की स्पर्द्धा में ऐसे ही दोहे बनाने का प्रयत्न किया, पर सफलमनोरथ न हो सके। कई एक ने खूब लंबे छंद में इस भाव को भरना चाहा, पर उसमें भी वह आनंद न आया। तुलना के लिये हम यहाँ दासजी का एक छंद उद्धृत करते हैं। कहना न होगा कि भावापहरण में दासजी को सदा अन्य कवियों से विशेष सफलता प्राप्त होती है। सो दोहे के भाव पर बनाया हुआ दासजी का यह छंद भी उत्कृष्ट बना है। छंद इस प्रकार है—
"पीतम प्रीतिमई अनुमानै, परोसिनी जानै सुनीतिहि सोहई;
लाज-सनी है बड़ी निमनी, बर नारिन मैं सिरताज गनी गई।
राधिका को ब्रज की जुवती कहैं, याही सोहाग-समूह दई दई;
सौती हलाहल सोती कहैं, औ सखी कहैं सुंदरि सील-सुधामई।"
मतिरामजी ने अपने दोहे में भाव का विकास जैसे क्रम-क्रम से किया था, वह बात दासजी के छंद में बिलकुल नहीं है। परोसिनें और व्रज-नारियाँ राधिकाजी का हाल सखियों और सौतों के पहले जान लेती हैं। यह स्वाभाविक नहीं है। मतिरामजी के दोहे का क्रम-विकास बिलकुल ठीक है। सपत्नी और नायिका का पद बराबर होने से पहले उन्हीं दोनो को एक-दूसरे के जानने का विचार होगा। फिर सदा साथ में रहनेवाली सखी का नंबर आएगा, इसके बाद कभी-कभी सामना होने के कारण घर के गुरुजन का अनुभव होगा, और अंत में एकांत में साक्षात्कार होने के कारण प्रीतम की पारी