(३) नायिका सौति को अनीति (के समान) (दुःखद) जानती है, यह उपमा का रूप है, जिसमें बाचक और धर्म का लोप है, सो यह वाचकधर्म लुप्ता हुई। सखी सुनीति, गुरुजन लाज, प्रीतम प्रीति में भी यही अलंकार हुआ।
(४) दोहे में कवि का प्रधान अभिप्राय यह है कि नायिका सौति को नहीं चाहती है, सखी को चाहती है, गुरुजन से लजाती है, तथा प्रियतम से प्रीति करती है। इस विवक्षित अर्थ को कवि ने दूसरे ही प्रकार से अर्थात् सौति को अनीति जानती है आदि शब्दों द्वारा प्रकट किया है। सो यह पर्यायोक्ति-अलंकार हुआ।
(५) नायिका ने सौति को अनीति जाना, फिर सखी को सुनीति जाना, फिर गुरुजन को लाज जाना, अंत में प्रियतम को प्रीति जाना। अनीति से सुनति, सुनीति से उचित लज्जा और तदुपरि सर्वश्रेष्ठ प्रीति का परिस्फुटन हुआ। यह उत्कर्ष क्रम-क्रम से हुआ, इस कारण सारालंकार हुआ।
(१) तीसरे अर्थ को लक्ष्य में रखने से यह भाव निकलता है कि नायिका सपत्नीत्व का भाव और किसी में आरोपित न करके केवल अनीति में करती है। यही बात शेष तीन चरणों में भी स्थापित की जा सकती है। यह परिसंख्या-अलंकार का रूप है।
(७) जानति-जानति का चार बार प्रयोग हुआ है । यह वीप्सालंकार हुआ।
(८) सखी सुनीति, जन जानति और प्रीतम प्रीति में वृत्त्यनुप्रास है।
(९) शब्दालंकारों और अर्थालंकारों की संसृष्टि है, तिल-तंडुल-न्याय से वे अलग किए जा सकते हैं।
(१०) कई अलंकार नीर-क्षीरवत् मिल गए हैं। इस कारण 'संकर' भी है।