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समीक्षा

 

"आप अपनी घात निरखत, खेल बन्यो जमाय।"

सो घात के साथ केलि का प्रयोग करते हुए मतिराम ने केलि का अर्थ खेल ही लिया है, ऐसा समझ पड़ता है। बृहस्पति-स्मृति का श्लोक यों है—

"स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्;
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वृत्तिरेव च।
एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः।"

फिर यदि केलि का अर्थ दूषित ही मान लिया जाय, तो भी साहित्य-दर्पण की कारिका दोष के स्थान में ऐसे वर्णन को गुण ही प्रतिपदित करती है। उधर नायिका का दिन में प्रियतम के पास न जाना उसके धर्म-भीरु और दूरदर्शिनी एवं पूर्ण पतिव्रता होने की सूचना देता है। रति-शास्त्र के ये श्लोक इस बात के प्रमाण हैं—

"दिवाभागे महाभाग यो गच्छेत् रमणीं नरः;
स्वल्पायुः स भवेदाशु सत्यं सत्यं न संशयः।
दिवाभागे व्रजेत् कोऽपि रमणीं यदि कामतः;
तज्जाततनयो ब्रह्मन् महापापी भविष्यति।"

विश्रब्ध नवोढ़ात्व के साथ-साथ यदि इन भावों का उदय स्वकीया सुंदरी के चित्त में हुआ हो, तो क्या आश्चर्य है। फिर भी छंद में अश्लीलता-दोष चाहे न भी हो, पर ऐसे वर्णन अनुचित हैं।

अलंकार

१. स्वभावोक्ति—कुल छंद में स्वभावोक्ति का चमत्कार है। विश्रब्ध नवोढा नायिका की स्वाभाविक चेष्टा का मार्मिक वर्णन है।

२. पर्यायोक्ति—नायक नायिका को अपने पास बुलाना चाहता था, सो उसने 'प्यास लगी, कोउ पानी दै जाय' आदि द्वारा पूर्ण करना चाहा। अर्थात् व्याज से इष्ट-साधन की चेष्टा की, अतः पर्यायोक्ति हुई।