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समीक्षा

  ९. संसृष्टि—उपमा और प्रहर्षण तथा वृत्त्यनुप्रास की संसृष्टि है। ये तिल-तंडुलवत् अलग किए जा सकते हैं।

१०. संकर—सार और प्रहर्षण तथा रूपक एवं उपमा और लोकोक्ति, अथच हेतु और असंगति में संकर है। नीर-क्षीर के समान वे ऐसे मिले हुए हैं कि एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते।

मतिरामजी के उपर्युक्त छंद की सुष्ठु योजना पर हम पाठकों का ध्यान विशेष रीति से आकर्षित करते हैं, क्योंकि जहाँ तक हमारे ध्य न में आया है, छंद में एक शब्द भी व्यर्थ का नहीं है—व्यर्थ का होना तो दूसरी बात है, ऐसा शब्द भी ढूँढ़ना कठिन है, जिसको हटाकर दूसरा शब्द रक्खा जा सके, और फिर चमत्कार में कमी न पड़ जाय। सत्कवियों की रचना में यही विशेषता होती है कि उनका प्रत्येक पद किसी चमत्कार-विशेष का समुत्पादक होता है। मतिरामजी की प्रायः सभी रचनाओं में ऐसा ही चमत्कार है।

(३)

"केलिकै राति अघाने नहीं, दिनहूँ मैं लला पुनि घात लगाई;
प्यास लगी, कोऊ पानी दै जाउ, यों भीतर बैठिकै बात सुनाई।
जेठी पठाई गई दुलही, हँसि हेरि हिए 'मतिराम' बुलाई;
कान्ह के बोल पै कान न दीन्हों, सुगेह की देहरी पै धरि आई।"

पिंगल—पिंगल-शास्त्र में गुरु को लघु पढ़ लेने का नियम है, तदनुसार उपर्युक्त सवैया में भी कई स्थानों पर इस नियम का पालन किया गया है। सात भगण और अंतिम दो गुरु होने से सवैया का नाम मालती है।

रस—नायिका (दुलही) आलंबन विभाव है। वह स्वकीया एवं विश्रब्ध नवोढ़ा है। उसका पति उसके वश हो रहा है, इससे नायिका का स्वाधीनपतिकात्व और नायक का अनुकूलत्व भी झलकता है। निर्जन स्थान एवं द्वार तक पानी देने के लिये नायिका का जाना