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समीक्षा

रहती थी, और अब प्राणप्यारे के आने से उसके हृदय में सुख बढ़ रहा है, इससे वह स्वकीया सिद्ध होती है। सखी का प्रियागमन का संदेश एवं स्वयं नायिका की आँखों का नायक की आँखों से मिलना उद्दीपन विभाव हैं। ज़रा-सी नींद पड़ने पर प्राणप्यारे के मिलन का ज्ञान स्वप्न-संचारी है। मिलन के बाद हृदय में सुख का बढ़ना मान- सिक अनुभाव है। स्थायी भाव रति है।

प्रिय की आगम-कथा सुनते ही जो उसके प्रति प्रेम-भाव उठा है, वह मोट्टाइत हाव का रूप है। इस प्रकार आलंबन विभाव, उद्दीपन और संचारी से पुष्ट होकर एवं अनुभाव द्वारा अपनी सफलता दिखलाकर रति स्थायी को दृढ़ करता है, और पूर्ण संयोग श्रृंगार का रूप पाता है। इसके सिवा स्वप्न, श्रवण और साक्षात् दर्शन तो छंद में स्पष्ट ही है।

गुण—सूखे ईंधन में आग लगाते ही जैसे अग्नि तत्काल काष्ठ में व्याप्त हो जाती है, वैसे ही उपर्युक्त छंद पढ़ते ही उसका भाव पाठक की समझ में आ जाता है, इस कारण छंद में प्रसाद गुण अपने पूर्ण रूप में विराजमान है।

वृत्ति और रीति—यद्यपि पट और चटकीलो—सदृश दो शब्दों में टवर्ग आ गया है; परंतु अन्यत्र मधुर पदावली है, इससे छंद में कैशिकी वृत्ति है। समस्त पदों का अभाव होने से इसमें वैदर्भी रीति का प्रयोग हुआ है।

पात्र—शुद्धस्वभावा स्वकीया आधार होने से एवं वाच्यार्थ मुख्य होने से छंद में वाचक पात्र ही प्रधान है।

काव्य मध्यम—निदान सब बातों पर विचार करके निष्कर्ष यह निकलता है कि उपर्युक्त कविता की गणना मध्यम श्रेणी में की जायगी, यदि व्यंजक पात्र होता, तो उत्तम श्रेणी में गणना की जाती।

पूर्ण रस-परिपाक दिखला चुकने के बाद अब हम उपर्युक्त छंद