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मतिराम-ग्रंथावली

  इसके बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं कि उपर्युक्त छंदों में पुराण-प्रसिद्ध 'गज-ग्राह-उद्धार'-घटना का मनोरंजक वर्णन है ।

अलंकार (१) 'बारि के बिहार बर बारन के बोरिबे को बारिचर बिरचा', इतने अंश में कई बार अनुप्रास का प्रयोग है! 'इलाज जय-काज' में भी यही दशा है। 'असरन-सरन चरन-सरन' तथा 'बजराज गरज गजराज' मैं भी अनूठा अनुप्रास-चमत्कार है।

(२) दूसरे पद में द्विरद-सिरताज की हिम्मत इस हेतु से दूर हुई है कि जल-जंतु बड़ा ही बलवंत है। इसलिये यह हेतु-अलंकार हुआ।

(३) 'असरन-सरन के चरन-सरन तके' में विरोधाभास है तथा निरुक्ति भी।

(४) 'दीनबंधु नाम की लाज की' पद द्वारा नाम के योग से अर्थ-कल्पना की गई है। इसलिये निरुक्ति है।

(५) 'ललितललाम' में मतिरामजी ने इस छंद को चंचलाति- शयोक्ति के उदाहरण में रक्खा है। कारण का प्रसंग वर्णन करते- करते यहाँ कार्य की उत्पत्ति हुई है। यही चंचलातिशयोक्ति का रूप है।

कुल छंद में मुख्य अलंकार चंचलातिशयोक्ति ही है। जिस प्रकार सत्कवि के काव्य में विना उद्योग के भी और बहुत-से अलंकार आ जाते हैं, वही बात मतिराम के इस छंद में भी हुई है।

गुण—प्रसाद-गुण मुख्य है। परंतु कहीं-कहीं, जैसे द्वितीय पद में ओज-गुण के सूचक भी कई पद हैं।

वृत्ति—उपर्युक्त पद्य में मधुरा और परुषा वृत्ति का मिश्रण है, इस कारण यह प्रौढ़ा वृत्ति है। इसी का नाम सात्वती वृत्ति भी है।

रस—इस छंद में पराया दुःख दूर करने का जो उत्साह है, वही