पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१३१

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समीक्षा


आक्षेप कर सकता था कि यह कैसे व्रजराज हैं, जो साधारण जीव के लिये इस प्रकार दौड़-धूप कर रहे हैं, सो इसका भी निवारण मतिराम ने चतुरता-पूर्वक कर दिया है। राजा के काम को राजा जाता ही है । फिर गजराज के काम को व्रजराज गए, तो क्या अनुचित हुआ ? अशरण की शरण में जाकर भी क्या गज साधारण जीव ही बना रहा ?

इस छंद में 'दूरि भई हिम्मति दुरद-सिरताज की', 'असरन-सरन के चरन-सरन तके', 'दीनबंधु निज नाम की सुलाज की' तथा 'मिली बीच ब्रजराज को गरज गजराज की' वाक्य महावरेदार और मतिराम के भाषा-सौष्ठव के परिचायक हैं। 'ब्रजराज को गजराज की गरज मिली', इस वाक्य में 'गरज' का सन्निवेश बड़ा ही सुंदर है। गरज को चाहे गर्जन-रूप में लीजिए, चाहे गरज के रूप में, दोनो ही प्रकार से प्रयोग बिलकुल ठीक बैठता है। मतिरामजी के छंद में जो भाव वणित है, उसको इनके कई पूर्ववर्ती कवियों ने भी कहा है, पर मतिराम ने उसे खूब सरस कर दिया है। इनके परवर्ती कवियों ने भी इस भाव को अपनाया है, पर मतिराम की सफ़ाई तक पहुंचने में समर्थ नहीं हो सके हैं। कविवर रघुनाथ का एक छंद नीचे दिया जाता है-

"धसत तरंगिनी मैं तीर हो तरल आय

ग्रस्यो ग्राह पाय, बैंचि पानी बीच तरज्यो;

करनी कलभ करें कलपना-कुल ठाढ़े,

कहा भयो कहा, करना के संग लरज्य।

कठिन समय बिचारि साहब सो गयो हारि-

हठि पग-ध्यान 'रघुनाथ' ज्यों ही सरज्यो;

असरन - सरन - विरद को परज देखो,

पहिले गरज भई, पीछे गज गरज्यो ।"