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मतिराम - ग्रंथावली

निकालकर दया का प्रार्थी हुआ। इस समय उसका सारा अंग डूब गया था। ऊपर सूंढ़ और दाँत ही दिखलाई पड़ रहे थे। ऐसी अवस्था में मतिरामजी ने हाथी के लिये दुरद-शब्द का प्रयोग करके अपनी पैनी निगाह का पूर्ण परिचय दिया है। हाथी का मद चूर्ण-चूर्ण हो गया। उसने सच्चा अनुताप किया। उसकी सच्ची भक्ति से भगवान् द्रवीभूत हो गए। इसलिये अब वह साधारण हाथी न रहा। क्या व्रजराज साधारण हाथी के लिये इस प्रकार दौड़ सकते थे? इसीलिये मतिराम ने अब 'गजराज ' शब्द का प्रयोग किया है। पाठक-गण स्वयं देखें कि बारन, द्विरद और गजराज का प्रयोग कितना विदग्धता-पूर्ण है। भगवान् के लिये भी इसी छंद में अशरण-शरण, दीन-बंधु, गोपाल और व्रजराज शब्दों का प्रयोग किया गया है। ये शब्द भी अपने-अपने स्थान में उपयुक्त ही हैं। गजराज को जब अपनी रक्षा के लिये और किसी का सहारा न रहा, तो अंत में वह भी उन्हीं की शरण में गया, जो 'अशरण-शरण' हैं। कितना उपयुक्त प्रयोग है! भगवान् ने दीन हाथी की उसी प्रकार मदद की, जिस प्रकार विपत्ति के समय भाई काम आता है। इसलिये 'दीनबंधु' का प्रयोग भी मार्के का रहा। 'गो' शब्द का अर्थ पृथ्वी और जल दोनो है। गोपाल समान भाव से जल और पृथ्वी के पालक हैं। इसलिये पृथ्वी और जल के दो जीवों के बीच का मामला निपटाने की संपूर्ण पात्रता उनमें ही है। इसीलिये हम गोपाल को गज-ग्राह का मामला निपटाने के लिये दौड़ते पाते हैं। परंतु पालक में शासक के गुणों का अभाव हो सकता है, इसलिये आगे भगवान् 'ब्रजराज' के रूप में प्रस्तुत हैं। राजा होने से वह शासन करने में समर्थ हैं। जिस प्रेम के प्रभाव से वह इस प्रकार दौड़े हैं, उसका मनोरम प्रस्फुटन 'ब्रज' में ही हुआ था। इस कारण 'ब्रजराज' में राजा के क्रूर भावों का निराकरण होकर 'प्रेम-पूर्ण शासन' की सुव्यवस्था का पता चलता है। कोई यह