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मतिराम-ग्रंथावली

यति में जाकर पड़ता है। यह यति-भंग का स्पष्ट उदाहरण है। तीसरे पद में 'सपूत पूत भावसिंह' में 'पूत' व्यर्थ समझ पड़ता है। 'जानपति' का अर्थ सुजानपति लगाया गया है। इस दृष्टि से 'जानपति' का प्रयोग असमर्थ है। भावसिंहजी को 'हिंदुवान-पति' तथा दिल्लीपति, दलपति कह करके फिर 'बलाबंधपति' कहने में कोई बड़ा गौरव नहीं है। द्वितीय पद में भावसिंह को जाचक निहाल करनेवाला कहा है, फिर चतुर्थ पद में उन्हीं को दानपति कहा है। चाहे यह पुनरुक्ति न हो, पर ऐसे प्रयोग अभिनंदनीय भी नहीं कहे जा सकते।

(३)

"मनौ भजी अरि-तियन को पकरन को दृढ़ दाप—
भावसिंह को दिसनि मैं फैलत प्रबल प्रताप।"

इस पर बाबू रामकृष्ण वर्मा की निम्नलिखित टिप्पणी का हम भी समर्थन करते हैं—"हम लोगों की समझ में अबल स्त्रियों को पकड़ने के लिये महाराज के प्रबल प्रताप का फैलना ठीक नहीं जान पड़ता।"

(४)

"केलिकै राति अघाने नहीं, दिनहू में लला पुनि घात लगाई।"

इत्यादि।

उपर्युक्त पद्य में चाहे साहित्य-दर्पण की शास्त्रीय आलोचना के बल पर अश्लील दूषण न भी लगे, परंतु ऐसे वर्णन समीचीन नहीं कहे जा सकते।

(५)

"बारि के बिहार बर बारन के बोरिबे को
बारिचर बिरची इलाज जय-काज की।"

उपर्युक्त पद्यांश में 'बिरची इलाज' का प्रयोग बेढंगा है, और ठीक भी नहीं।