ज्ञता पर मुग्ध होना पड़ता है। सुकुमारी का कथन है कि प्यारे की प्राप्ति के लिये वन में जाकर तप करने की आवश्यकता है। प्यारा इस रूप में इस नारी-शरीर द्वारा तो प्राप्त होने का नहीं, इसलिये उद्योग यह होना चाहिए कि जन्मांतर में वनमाला अथवा मुरली का शरीर प्राप्त हो, तब प्यारे के सन्निकट रहने की पूर्ण संभावना रहेगी। सुकुमारी का यह कथन विशेष विचारणीय है। यदि सुकुमारी ऊढ़ा नहीं है, तो पार्वती के समान इसी शरीर से प्यारे को प्राप्त करने के लिये तपस्या क्यों नहीं करती? पर वास्तव में वह ऊढ़ा है। वह समाज नियम जानती है। वह जानती है कि हिंदु-ललना का दूसरा विवाह नहीं होने का, इसलिये तप द्वारा यदि प्यारा मिलेगा, तो दूसरे जन्म में, इस जन्म में नहीं। बस, इतना कथन ऊढ़त्व प्रतिपादित करने के लिये पर्याप्त है।
(२)
"बिछुरत रोवत दुहुन के सखि यह रूप लखै न;
दुख-अँसुवा पिय-नैन हैं, सुख-अँसुवा तिय-नैन।"
यह मुदिता का उदाहरण है। पति-पत्नी का वियोग होता है। पति वियोग से दुखी हो आँसू बहा रहा है, पर नायिका के आँसू सुख के हैं। प्रियतम के विदेश चले जाने पर उसके लिये अपने अन्य प्रेमी के साथ रमण करने में रुकावट न रहेगी, इस विचार से उसके आनंदाश्रु बह रहे हैं। यही उपर्युक्त दोहे का भाव है। दोहे में 'सखि यह रूप लखै न', इसी पद पर विवाद है। कहा जाता है, एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि ऐसा दृश्य और कब देखने को मिला है? 'सखि यह रूप लखै न' का यही मतलब लगाया गया है। अब आक्षेप यह है कि सखी यह कैसे जान सकती है कि प्रिय के नेत्रों के आँसू दुःख के हैं, और तिय के सुख के? इस पर उत्तर यह दिया जाता है कि अंतरंगा सखी ऐसा जान सकती है। पहले कुछ सखियाँ आँसू