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समीक्षा

एक उत्तम समता का ही निर्वाह नहीं किया, वरन् घटना-काल के अनुकूल ऐसे उपमेय-उपमान जुटाए कि उनकी अनोखी मर्मज्ञता पर बलात् बधाई देनी पड़ती है। समग्र छंद में स्वभावोक्ति का मनोरम चमत्कार है। माधुर्य पाठक के मुँह को बाँधे देता है। पहला पद एक अनिर्वचनीय आनंद उत्पन्न करता है। 'चहूँ ओर दीरघ दृगन करी दौर है' बड़ी ही मार्मिकता से भरा हुआ है। दीर्घ नेत्रों की दौड़ चारो ओर हुई है। तभी तो एक ओर मछली पड़ी तड़प रही है, दूसरी ओर कमल फूला है, तीसरी ओर खंजन थिरक रहा है, और चौथी ओर स्थिर चकोर निनिमेष नेत्रों से सुधाकर का पीयूष पान कर रहा है। धन्य मतिराम! धन्य तुम्हारा अपूर्व काव्य-कौशल!

(३)

अनुरागिनी वेश्या कहाँ? उनकी प्रीति तो बहाना-मात्र है। इंद्रिय-सुख-भोग के लिये नायक उन पर भले ही जान दे दे, पर पवित्र प्रेम की परछाईं वहाँ कहाँ? विषयाकृष्ट नायक जब तक धन द्वारा वेश्या का सम्मान कर सकता है, तभी तक वह उसकी है। उसका श्रृंगार, हाव-भाव, सभी कुछ धन वसूल करने के लिये है। नायक का सम्मान वह इसलिये नहीं करती कि हृदय-मंदिर में बैठकर पवित्र प्रेम-देव उससे ऐसा करने का आग्रह करते हैं, वरन् इसलिये करती है कि अपने रूप-जाल में फाँसकर उससे मनमाना धन ऐंठे। वेश्याओं की ऐसी ही प्रवृत्ति के कारण उनकी प्रीति में 'रसाभास' माना गया है। मतिरामजी ने एक गणिका आगतपतिका नायिका का वर्णन बड़े ही कौशल से किया है। नायक के आगमन से गणिका प्रसन्न अवश्य हुई है, पर यह प्रसन्नता नायक से धन वसूल होने की संभावना के कारण है, इस बात को कविवर ने बड़ी ही चतुरता से दिखलाया है। नायिका और नायक की बातें हुई हैं। नायिका ने बातचीत में सुबरन (अच्छे पद और स्वर्ण) का प्रयोग किया है। क्या ये अच्छे-अच्छे पद