नायिका का प्रियतम से मिलन सखी को लक्षित हो जाता है। नायिका से वह इस बात को साफ़-साफ़ बतला देती है। ऐसी एक लक्षिता नायिका का चित्र मतिरामजी ने यों खींचा है—
"आई हौ पाँय दिवाय महावर कुंजन सों करिके सुखसेनी;
साँवरे आजु सवाँरो है अंजन, नैननि को लखि लाजत एनी।
बात के बूझत ही ‘मतिराम' कहा करिए, भटू भौंह तनेनी;
मँदी न राखति प्रीति अली, यह गूॅंदी गोपाल के हाथ की बेनी।"
उपर्युक्त छंद में प्रियतम-कृत श्रृंगार का होना पैरों के महावर, आँखों के अंजन और सिर की वेणी में ही संभव है, तो क्या महावर लगाने में नायक ने कोई भूल की? क्या वह ठीक तौर से काजल न लगा सका? क्या वेणी बांधना भी उसे न आता था? क्या वह इतना अज्ञ था? यदि उसने कोई भूल नहीं की, तो सखी ने भेद कैसे पा लिया? क्या सखी का यह कहना कि गोपाल (गाय पालनेवाला अहीर-गवार-अज्ञ) की गुही वेणी प्रीति प्रकट कर रही है—इसी अभिप्राय से है कि नायक गँवार है? उत्तर में निवेदन है कि बात ऐसी नहीं है। सखी के द्वारा 'गोपाल' के प्रयोग में हास्य की पुट होना संभव है; पर नायक अज्ञ न था। उसने महावर और अंजन लगाने तथा वेणी बाँधने में भूल नहीं की, पर उसके सतर्क रहते भी इन तीनो ही कामों में विकार हो गया है।
सात्त्विक भाव से पैर में स्वेद का प्रादुर्भाव हुआ है, इसलिये नायक का लगाया महावर फैल गया है। नेत्रों में कज्जल की भी यही दशा हुई है, यहां तक कि नायिका के नेत्र श्यामता में हरिणी के नेत्रों से भी बढ़ गए हैं। उधर वेणी बाँधने में दूसरी ही बात हुइ है। सखी या नाइन तो कसकर वेणी बाँधती—उसका लक्ष्य तो वेणी ठीक बँध जाय, इसी पर रहता; पर नायक महोदय प्रेमाधिक्य के कारण कसकर बाँधने से घबरा गए। उन्हें भय हुआ कि