निष्प्रभ-सा लगता है, वैसा ही हाल उन दीपकों का हुआ। बात क्या थी, सो कवि से सुनिए—
"बसन हरयो पिय सुरत मैं तिय-तन जोति-समीप;
केलि-भौन में राति हू भए द्यौस के दीप।"
अंग-दीप्ति का और क्या परिचय दिया जाय?
(८) अकेले ब्राह्मण की अपेक्षा यदि ब्राह्मण और ब्राह्मणी दोनो साथ-साथ खिलाए जाएँ, तो क्या बात है? फिर सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण और ब्राह्मणी के न्योते की बात तो और भी पुण्यमयी है। ऐसे मेहमानों के लिये 'सुधा-भोजन' से घटकर पदार्थ भी न होना चाहिए। सखी नायिका को यही सलाह देती है कि वह ऐसा ही न्योता कर डाले। भोजन तो सहज-सुलभ है, क्योंकि उसके अधरों में ही सुधा-भोग मौजूद है। रहा 'दुजराज और दुजराजिन', सो वे कृष्णचंद के मुँह में मौजूद हैं। बस, अधरामृत पान करा दो, ब्राह्मण-भोजन से भी बढ़कर पुण्य होगा। 'दुज' (द्विज) दाँत को भी कहते हैं। सारे दाँत मुख के आश्रित हैं। इसलिये 'मुख' दुजराज हुआ। 'दुजराजी' (द्विजराजी) दाँतों की पंक्ति को कहेंगे, इसलिये 'द्विज-राजिनि' दाँतों की पंक्तियाँ हुई। यों दुजराज और दुजराजिनि का अभिप्राय दंत-संयुक्त मुख हुआ। ऐसे मुख का न्योता उसी अधरा-मृत-पान का होगा। कैसा चमत्कार-पूर्ण दोहा है—
"अली, तिहारें अधर मैं सुधा-भोग को साज;
दुजराजिनि-जुत न्योतिए लाल बदन दुजराज।"
(९) नायक-नायिका दोनो के मुख चंद्रमा के समान प्रकाश फैला रहे हैं। बेचारी लज्जा-रूप अँधियारी को कहीं टिकने का अवसर ही नहीं मिलता—
"दुहूँ ओर मुख दुहुँनि के बिधु लौं करत प्रकास
लाज-अँधियारी दुहुँनि को कहूँ न पावति बास।"