यही सोचकर जिस समय गोपी और श्रीकृष्ण का परिरंभण हुआ, तो उस गोपी ने वनमाला को भली भाँति दल-मल डाला। ईर्ष्या के भाव को कैसा अच्छा निवाहा है—
"लगी रहै हरि-हिय यहै करि ईरखा बिसाल;
परिरंभन मैं बल्लवी भली दली बनमाल।"
(५) कृष्णचंद्र ने अपने कान से उतारकर गुलाब के फलों का एक गुच्छा प्रणय-सूचना के रूप में एक प्रेयसी गोपी को दे दिया। वह उस गुलाब-गुच्छ पर इतनी अधिक अनुरक्त हो रही है कि लज्जा की कुछ भी परवा न करके गुरुजनों में भी उसे प्रकट कर रक्खा है—
"दियो कान्ह, निज कान ते तुम गुलाब को गुच्छ;
गुरुजन मैं अवतंस करि फिरति लाज करि तुच्छ।"
देवजी का भी एक ऐसा ही भाव दर्शनीय है—
"अरिकै वह आज अकेली गई खरिकै हरि के गुन-रूप-लुही;
उनहूँ अपनी पहिराय हरा मुसकायकै, गायकै गाय दुही।
कहि 'देव', कहो किन कोऊ कछु, तब ते उनके अनुराग-छुही;
सब ही सों यही कहै बालबधू, यह देखु री माल गोपाल-गुही।"
(६) सखी, तू गुलाब की कली के फूलने के वास्तविक भाव को नहीं देख रही है। कली फूलती क्या है, मानो चुटकी के इशारे से मधुप को बुला रही है, बड़ा ही व्यापक भाव है। अनेक प्रसंगों पर इसका उपयोग हो सकता है। उक्ति-सूक्ष्मता ध्यान देने योग्य है—
"फूलति कली गुलाब की सखि, यह रूप लखै न;
मनो बुलावति मधुप को दै चुटकी की सैन।"
(७) केलि-भवन में रात्रि के समय संदर दीपक जल रहे हैं। एकाएक उनकी आभा क्षीण हो गई। जैसे दिन में जलता दीपक