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समीक्षा

 

"अजौ उड़ावत हौ नहीं, पीर न होत सभाग;
ठौर-ठौर ये भौंर-से लगे अधर-दल दाग।"

(३) खंडिता की और भी स्पष्टोक्ति देखिए। वह अपराधी नायक से कहती है—भावतेजी, आपके उरःस्थल पर भावती ने जो यह वेणी की छाप लगा दी है, अर्थात् आपके हृदय-स्थल पर जो यह अन्य नायिका के साथ आलिंगन होने के कारण उसकी वेणी का चिह्न बन गया है, वह कामदेव की सीढ़ी के समान होने से मुझे बड़ा ही भला लगता है। कहने का कैसा निराला ढंग है!

"भली लगै उर भावते, करी भावती आप—
काम-निसेनी-सी बनी यह बेनी की छाप।"

(४) "प्राणनाथ ने आज नवीन चंद्रहार धारण किया है, पर इसकी छवि तो नक्षत्रों के समान है। बारीक कपड़े से ढके रहते भी किसी प्रकार दृष्टि-पथ से विलग नहीं है।" ऐसा कथन करके नायिका ने अपराधी नायक को पानी-पानी कर दिया—

"झीने अँगा बिलोकियत नख-छत छबिधर नाह!
भले बिराजत ये नए चंद्रहार हिय माँह।"

कविवर बिहारीलाल के भी एक दोहे में कुछ ऐसा ही भाव प्रकट हुआ है।

भिन्न प्रकार के छंदों में समान भाव

मतिरामजी ने अपने उन अनेक भावों को, जिन्हें वह एक बार कवित्त और सवैया-जैसे लंबे छंदों में प्रकट कर चुके हैं, फिर से दोहा-छंदों में भी वर्णन किया है। दोहा-जैसे छोटे छंद में स्थल-संकोच होते हुए भी उन्होंने मुख्य भाव की सफलता-पूवक रक्षा की है। यही क्यों, कहीं-कहीं तो दोहे में और भी चमत्कार की वृद्धि हो गई है। सतसई में हमें ऐसे अनेक दोहे मिले हैं, जिनमें प्रकट होनेवाले भाव 'रसराज' के कवित्त और सवैया-छंदों में वर्तमान हैं। ऐसे भावों को साथ-साथ