अतनुभाव को वह विरहिणी नायिका में भी स्थापित किया चाहता है। अपने में और प्रोषितपतिका में वह कोई भेद नहीं रहने देना चाहता। मानो नायिका को उसकी बदौलत सायुज्य भुक्ति मिलने जा रही है। विरह के कारण नित्यप्रति नायिका के अंग-प्रत्यंग क्षीण पड़ते जा रहे हैं। इससे कवि कल्पना करता है, मानो कामदेव उसे अपने ही समान विना शरीरवाली बना लेगा—सायुज्यता प्रदान कर देगा—
"लाल, तिहारे बिरह नित, छीन बाल के अंग;
जानति हौं, चाहत दियो, निज सायुज्य अनंग।"
(७) वर्षा क्या आई, मानो कामदेव ने विरहिणी को जलाने के लिये दावाग्नि जला दी है। ये घटाएँ बिलकुल धुएँ के अनुरूप हैं, तथा चंचला की चमक दावानल की ज्वालमालाओं की समता करती है। पावस के 'प्रथम पयोद' को लक्ष्य करके महाकवि बिहारीलाल ने यह भाव अपने एक दोहे में दिखलाया है—
"ज्वाल-जाल बिज्जुल-छटा, घटा धूम-अनुहारि;
बिरहिन-जारन को मनो, लाई मदन दवाँरि।"
(८) व्रजबाला की दशा ग्रीष्म-सरिता के समान हो रही है। निदाघकाल में सरिता का जीवन (जल) सूखने लगता है। विरहिणी का भी जीवन क्षीण हो रहा है। वर्षा आने पर घनश्याम (काली-काली मेघ-मालाएँ) रस (जल) बरसाकर सरिता को फिर परिपूर्ण कर देते हैं। उसी प्रकार घनश्याम (श्रीकृष्णचंद्र) रस-वृष्टि करके मृतप्राय विरहिणी को फिर जिला सकते हैं। इस सुंदर उपमा के सहारे सखी ने कैसा सुंदर हृदयस्पर्शी विरह-निवेदन किया है—
"बाल अलप जीवन भई ग्रीषम-सरित-सरूप;
अब रस-परिपूरन करौ तुम घनस्याम अनूप!"
कविवर रघुनाथजी ने मतिरामजी के इस भाव को अपने एक छंद में ज्यों-का-त्यों अपना लिया है।