उपर्युक्त पद्य से स्पष्ट है कि कवि ने साधारण-सी किसानी की बात को अपनी युक्ति में कैसे अच्छे ढंग से बिठला दिया!
(२) "गुन-अवगुन को तनकऊ प्रभु नहिं करत बिचार;
केतिक-कुसुम न आदरत, हर सिर धरत कपार।"
केतकी का फूल महादेवजी पर नहीं चढ़ाया जाता, इसके विषय में एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है। मतिरामजी ने पौराणिक कथा का समावेश सुंदरता से किया है।
(३) "कहा दवागिनि के पिए? कहा धरे गिरि धीर?
बिरहानल में जरत ब्रज, बूड़त लोचन-नीर।"
कृष्ण का दावानल-पान और गिरि गोवर्धन धारण करना— एक बार अग्नि से और दूसरी बार जल से व्रज का बचाना मतिराम को मालूम है। इतिहासज्ञ मतिराम मीठी चुटकी लेते हुए कृष्णचंद्र से कहते हैं कि पहले दो बार की विपत्ति-निवारण का ध्यान करके विरहिणी के अश्रु-प्रवाह की बहिया में डूबनेवाले एवं विरहानल में जलनेवाले व्रज की फिर रक्षा करो, नहीं तो पहले दोनो कामों का कोई महत्त्व न रह जायगा।
(४) "लाल, तिहारे संग मैं खेलै खेल बलाय;
मूॅंदत मेरे नयन हौ करन कपूर लगाय।"
सात्त्विक के कारण नायिका को नायक के हाथ शीतल और सुगंधित जान पड़ते हैं। सो कपूर का अनोखा धोखा हो जाता है।
(५) "जैसे मिही पट मैं चटकीलो चढ़े रँग तीसरी बार के बोरे।"
किसी रँगरेज़ से पूछिए कि महीन कपड़े में चटकीला रंग चढ़ाने का क्या उपाय है?
(६) "इंद्रजाल-कंदर्प को कहा कहै 'मतिराम'?
आगि लपट बर्षा कर, ताप धरै घनस्याम।"
इंद्रजाल के खेल ऐसे ही होते हैं। जादूगर क्या नहीं कर सकते!