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भ्रमरगीत-सार
 

नासिका-अग्र है तहाँ ब्रह्म को बास।
अबिनासी बिनसै नहीं, हो, सहज ज्योति-परकास॥
घर लागै'[१] औघूरि कहे मन कहा बँधावै।
अपनो घर परिहरे कहो को घरहि बतावै?
मूरख जादवजात हैं हमहिं सिखावत जोग।
हमको भूली कहत हैं हो, हम भूली किधौं लोग?
गोपिहु ते भयो अंध ताहि दुहुं लोचन ऐसे!
ज्ञाननैन जो अंध ताहि सूझै धौं कैसे?
बूझै निगम बोलाइ कै, कहै वेद समुझाय।
आदि अंत जाके नहीं, हो, कौन पिता को माय?
चरन नहीं भुज नहीं, कहौ, ऊखल किन बाँधो?
नैन नासिका मुख नहीं चोरि दधि कौन खाँधो[२]?
कौन खिलायो गोद में, किन कहे तोतरे बैन?
ऊधो ताको न्याव है, हो, जाहि न सूझै नैन॥
हम बूझति सतभाव न्याव तुम्हरे मुख साँचो।
प्रेम-नेम रसकथा कहौ कंचन की काँचो[३]
जो कोउ पावै सीस दै[४] ताको कीजै नेम।
मधुप हमारी सौं[५] कहो, हो, जोग भलो किधौं प्रेम॥
प्रेम प्रेम सों होय प्रेम सों पारहि जैए।
प्रेस बँध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैए॥


  1. घर लागै=ठिकाने लगता है। औघूरि=घूमकर। घर......बँधावै=मन घूमकर फिर अपने ही ठिकाने आता है उसे कह सुनकर क्या कोई बाँध सकता है?
  2. खाँधो=(सं॰ खादन) खाय।
  3. काँचो=काँच।
  4. सीस दै=सिर देकर, प्राण खोकर।
  5. हमारी सौं=हमारी सौगंध।