कंचन-कलस भराय आनि परिकरमा कीन्हीं॥
गोप-भीर आँगन भई मिलि बैठे यादवजात[१]।
जलझारी आगे धरी, हो, बूझति हरि-कुसलात॥
कुसल-छेम बसुदेव, कुसल देवी कुवजाऊ।
कुसल-छेम अक्रूर, कुसल नीके बलदाऊ॥
पूछि कुसल गोपाल की रहीं सकल गहि पाय।
प्रेम-मगन ऊधो भए, हो. देखत व्रज को भाय[२]॥
मन मन ऊधो कहै यह न बूझिय गोपालहि[३]।
ब्रज को हेतु बिसारि जोग सिखवत ब्रजबालहि॥
पाती बाँचि न आवई रहे नयन जल पूरि।
देखि प्रेम गोपीन को, हो ज्ञान-गरब गयो दूरि॥
तब इत उत बहराय नीर नयनन में सोख्यो।
ठानी कथा प्रबोध बोलि सब गुरू समोख्यो[४]॥
जो ब्रत मुनिवर ध्यावही पर पावहिं नहिं पार।
सो ब्रत सीखो गोपिका, हो, छाँड़ि विषय-विस्तार॥
सुनि ऊधो के बचन रहीं नीचे करि तारे[५]।
मनो सुधा सों सींचि आनि विषज्वाला जारे॥
हम अबला कह जानहीं जोग-जुगुति की रीति।
नँदनंदन ब्रत छाँड़ि कै, हो, को लिखि पूजै भीति[६]?
अबिगत, अगह, अपार, आदि अवगत है सोई।
आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोई॥
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भ्रमरगीत-सार
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