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करती हैं। वे समझती हैं कि ज्ञान-मार्ग को हम बुरा नहीं कहती है, वह अत्यन्त श्रेष्ठं मार्ग है; पर अपनी रुचि को हम क्या करें ? वह हमारे अनुकूल नहीं पड़ता। रुचि-भिन्नता दो समान वस्तुओं में भी भेद करके एक की ओर आकर्षित करती है और दूसरी से दूर रखती है––

उधो! तुम अति चतुर सुजान।
द्वै लोचन जो विरद किए श्रुति गावत एक समान।
भेद चकोर कियो तिनहू में विधु प्रीतम, रिपु भान॥

उद्धव अपनी सी कहते जा रहे हैं कि बीच में कोयल बोल उठती है। गोपियाँ चट उद्धव का ध्यान उधर ले जाती हैं––

ऊधो! कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेस रत कही भस्म लगावत आनन।

वह सुनो! कोयल कूक रही है। तुम तो हमें राख मलने को कह रहे हो; उधर प्रकृति क्या कह रही है, वह भी सुनो।

'भ्रमरगीत' की भूमिका के रूप में ही यहाँ सूर के संबंध में कुछ विचार संक्षेप में प्रकट किए गए हैं। आशा है विस्तृत आलोचना का अवसर भी कभी मिलेगा।


गुरुधाम, काशी
श्रीपंचमी, १९८२

रामचन्द्र शुक्ल