प्रकार श्रोता को अपनी विचार-पद्धति पर लाना चाहता है उसी प्रकार कवि अपनी भाव-पद्धति पर।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 'विदग्धता' वहीं तक काव्योपयोगी हो सकती है जहाँ तक वह भाव-प्रेरित हो––जहाँ तक उसका कारण कोई भाव या कम से कम कोई रागात्मक दशा हो। 'विदग्धा नायिका' की वचन-विदग्धता या क्रिया-विदग्धता में काव्य की रमणीयता इसीलिए होती है कि उसकी तह में रति भाव वर्त्तमान रहता है। किसी पुराने चोर या चाईं की विदग्धता का ब्योरेवार वर्णन काव्य के अंतर्गत नहीं आ सकता; क्योंकि उसमें रसात्मकता नहीं। सूर ने कई स्थलों पर बालक कृष्ण की वचन-विदग्धता दिखाई है; जैसे––
मैं अपने मंदिर के कोने माखन राख्यो जानि।
सोई जाय तुम्हारे ढोटा लीनो है पहिचानि॥
बूझी ग्वालिन घर में आयो, नेकु न संका मानी।
सूर स्याम यह उतर बनायो 'चीटी काढ़त पानी'॥
इस विदग्धता में जो रमणीयता है वह इसी कारण कि इससे बाल-प्रकृति का चित्रण होता है और यह भय प्रेरित है।
'अब सूर ने अपने सिद्धांत पक्ष का जो काव्यात्मक निरूपर किया है थोड़ा उसे भी दिखाकर इस प्रबंध को समाप्त करते हैं उद्धव के ज्ञानयोग का पूरा लेक्चर सुनकर और उसे अपने सीधे-सादे प्रेम मार्ग की अपेक्षा कहीं दुर्गम और दुर्बोध देखकर गोपियाँ कहती हैं––
काहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रुँधो?