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जिसके न रहने से जीवन की धारा ही खंडित जान पड़ती है उसके दोषों का ध्यान कैसा? वह,आवे, चाहे,दो चार और दोष भी साथ लगाता आवे। यह चीज़ की वह क़दर है जो उसके न रहने पर मालूम होती है। वियोग के अंतर्गत यह हृदय की बड़ी ही उदार दशा है। इसमें दृष्टि दोषों की ओर जाती ही नहीं। यह दशा दूसरे के दोषों को ही आँख के सामने से नहीं हटाती, बल्कि स्वयं अपने में भी दोष सुझाने लगती है। प्रेम द्वारा आत्म-शुद्धि का यह विधान कैसा अचूक़ है! राधा अपनी एक-एक त्रुटि का स्मरण या कल्पना करती हैं और व्याकुल होती हैं––

मेरे मन इतनी सूल रही।
वै बतियाँ छतियाँ लिखि राखीं जे नँदलाल कहीं॥
एक दिवस मेरे गृह आए, मैं ही मथति दही।
देखि तिन्हैं हौं मान कियो, सो हरि गुसा गही॥

कभी कभी उन्हें अपने प्रेम की ही कमी पर पछतावा होता है––

कहाँ लगि मानिए अपनी चूक।
बिनु गोपाल, ऊधो! मेरी छाती ह्वै न गई द्वै टूक॥

वियोग गोपियों के हृदय को कभी कभी कैसा कोमल, उदार और सहिष्णु कर देता है, इसकी कैसी अनुताप-मिश्रित सूचना इस पद में है––

फिर ब्रज बसहु, गोकुलनाथ!
बहुरि तुमहिं न जगाय पठवौं गोधनन के साथ॥
बरजौं न माखन खात कबहूँ, देहुँ देन लुटाय।
कबहूँ न दैहौं उराहनो जसुमति के आगे जाय॥
दौरि दाम न देहुँगी, लकुटि न जसुमति पानि।
चोरी न देहुँ उघारि, किए अवगुन न कहिहौं आनि॥