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ऐसी ही दशा के बीच राधा अपनी सखी से अपनी उस विह्वलता या 'मोह' की बात कहती हैं जिसके कारण उद्धव के आगे कुछ कहते नहीं बनता––

सँदेसो कैसे कै अब कहौं?
इन नैनन्ह या तन को पहरो कब लौं देति रहौं?
जो कछु विचार होय उर अन्तर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत, ऊधो तन चितवत न सो विचार, न हौं॥

इस प्रकार वे अपनी दुःख-दशा कहते कहते थक जाती हैं। फिर वे सोचती हैं कि हमारी दशा पर कृष्ण कदाचित् उतना ध्यान न दें; इससे वे नन्द और यशोदा की व्याकुलता का वर्णन करती हैं; गायों का दुःख सुनाती हैं कि कदाचित् उन्हीं का खयाल करके वे एक बार आ जायँ––

ऊधो! इतनी कहियो जाय।
अति कृसगात भई हैं तुम, विनु बहुत दुखारी गाय॥
जल समूह बरसत अँखियन तें, हूँकति लीन्हें नावँ।
जहाँ जहाँ गोदोहन करते ढूँढति सोइ सोइ ठावँ॥

कृष्ण किसी प्रकार आवें, बस यहि अभिलाष सबके ऊपर है। वे किसी खयाल से आवें; आवें तो सही। बदले में कृष्ण भी वैसा ही प्रेम रखें, इतनी बड़ी बात की आशा गोपियों से अब नहीं करते बनती। अब तो वे वहुत थोड़े में संतुष्ट होने को तैयार हैं। केवल उनका दर्शन पा जायँ, बस। यह तोष-वृत्ति नैराश्य- जन्य है। नीचे के पद में जो 'क्षमा' या 'उदारता' है वह भी अभाव के दुःख की ही ओर से आती हुई जान पड़ती है––

ऊधो! कहियो यह संदेस।
लोग कहत कुबजा-रस माते, तातें, तुम सकुचौ जनि लेस॥