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उधो! जाहु तुम्हैं हम जाने।
साँच कहौ तुमको अपनी सौं, बूझत बात निदाने॥
सूर स्याम जब तुम्हैं पठाए तब नेकहु मुसकाने?

यह अनुमान या 'वितर्क' रागात्मिका वृत्ति से सर्वथा निलिप्त शुद्ध बुद्धि की क्रिया नहीं है। संचारी 'मति' के समान यह भी भावप्रेरित है; हृदय की रागद्वेष वृत्ति से संबंध रखता है। किसी बात को मानने न मानने की भी रुचि हुआ करती है। कृष्ण के प्रेम को गोपियाँ छोड़ना नहीं चाहती; अतः यह बात मानने को उनका जी नहीं करता कि कृष्ण ने ऐसा अप्रिय संदेश भेजा होगा। जिस बात को कोई मानना नहीं चाहता उसको न मानने के वह हज़ार रास्ते ढूँढ़ता है। बस, गोपियों के अन्तःकरण की यही स्थिति ऊपर के पद में दिखाई गई है।

उद्धव के ज्ञान-योग की गोपियाँ कितनी क़द्र करती हैं, अब थोड़ा यह भी देखिए। जो ऐसी चीज़ ढोए फिरता है जिसे बहुत से लोग बिल्कुल निकम्मी समझ रहे हैं उसे वे बेवकूफ़ समझकर ही नहीं रह जाते, बल्कि बनाने में भी कभी कभी पूरी कल्पना खर्च करते हैं। बेवकूफ़ी पर हँसने का रिवाज बहुत पुराना है। लोग बना बनाया बेवकूफ़ पाकर हँसते भी हैं और हँसने के लिए बेवकूफ़ बनाते भी हैं। हास की प्रेरणा ही कल्पना को मूर्ख का स्वरूप जोड़ने और वाणी को कुछ शब्द-रचना करने में तत्पर करती है। गोपियाँ कुछ कुछ इसी प्रेरणावश उद्धव से नीचे लिखी बात उस समय कहती हैं जब वे घबराकर उठने को तैयार होते हैं––

उद्धव। जोग विसरि जानि जहु।
बाँघहु गाँठ, कहूँ जनि छुटै, फिरि पाछे पछिताहु॥