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तुलसी की 'गीतावली' मौजूद है; पर, रामचरितमानस और कवितावली की शैली की सूर की कोई कृति नहीं है। इसके अति- रिक्त मनुष्य-जीवन की जितनी अधिक दशाएँ, जितनी अधिक वृत्तियाँ, तुलसी ने दिखाई हैं, उतनी सूर ने नहीं। तुलसी ने अपने चरित्र चित्रण द्वारा जैसे विविध प्रकार के ऊँचे आदर्श खड़े किए हैं वैसे सूर ने नहीं। तुलसी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है और सूर की एकमुखी। पर एकमुखी होकर उसने अपनी दिशा में जितनी दूर तक की दौड़ लगाई है उतनी दूर तक की तुलसी ने भी नहीं; और किसी कवि की तो बात ही क्या है। जिस क्षेत्र को सूर ने चुना है उस पर उनका अधिकार अपरिमित है, उसके वे सम्राट् हैं।

सूर की विशेषताओं के इस संक्षिप्त दिग्दर्शन को समाप्त करने के पहले इतना और कह देने को जी चाहता है कि सूर में सांप्र- दायिकता की छाप तुलसी की अपेक्षा अधिक है। अष्टछाप में वे थे ही। उन्होंने अनन्य उपासना के अनुसार कृष्ण या हरि को छोड़ और देवताओं की स्तुति नहीं की है। ग्रंथारंँभ में भी प्रथानुसार गणेश या सरस्वती को याद नहीं किया है। पर तुलसीदासजी की बँदना कितनी विस्तृत है, यह रामचरितमानस और विनय-पत्रिका के पढ़नेवाल मात्र जानते हैं। उनमें लोक-संग्रह का भाव पूरा पूरा था। उनकी दृष्टि लोक-विस्तृत थी। जन-समाज के बीच या कम से कम हिंदू-समाज के बीच––परस्पर सहानुभूति और संमान का भाव तथा सुखद व्यवस्था स्थापित देखने का अभिलाप भी उनमें बहुत कुछ थी। शिव और राम को एक दूसरे का उपा- सक बनाकर उन्होंने शैवों और वैष्णवों में भेदबुद्धि रोकने का प्रयत्न किया था। पर सूरदासजी का इन सब बातों की ओर ध्यान नहीं था।