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भाग्य को,सराहा है। यह भी याद ही दिलाना है कि कृष्ण परमेश्वर हैं।

सूरदास जी अपने भाव में मग्न रहनेवाले थे, अपने चारों ओर की परिस्थिति की आलोचना करनेवाले नहीं। संसार में क्या हो रहा है, लोक की प्रवृत्ति क्या है, समाज किस ओर जा रहा है, इन बातों कीं ओर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया है तुलसीदासजी लोक की गति के सूक्ष्म पर्यालोचक थे। वे उसके बीच पैदा होनेवाली बुराइयों को तीव्र दृष्टि से देखनेवाले थे जिस प्रकार उन्होंने अपने समय की जनता की दुःख दशा और दुर्वृत्ति तथा मर्यादा के ह्रास पर दृष्टिपात किया है, उसी प्रकार लोक-मर्यादा के ह्रास में सहायता पहुँचानेवाली प्रच्छन्न शक्तियों को भी पहचाना है। किस प्रकार उन्होंने कबीर, दादू आदि के लोक-विरोधी स्वरूप को पहचान कर उनके उद्धत व्यक्तिवाद के विरुद्ध घोषणा की, यह हम गोस्वामीजी की आलोचना में दिख चुके हैं[१]।* सूरदासजी अपने भाव-भजन और मंदिर के नृत्य गीत में ही लीन रहते थे; इन सब अंदेशों से बहुत दुबले नहीं रहते थे। पर "निर्गुन बानी" की जो हवा बह रही थी, उसकी ओर उनके कान अवश्य थे।

तुलसी की आलोचना में हम सूचित कर चुके हैं कि तुलसी का ब्रजभाषा और अवधी दोनों काव्य-भाषाओं पर तुल्य अधिकार था और उन्होंने जितनी शैलियों की काव्य-रचना प्रचलित थी उन सब पर बहुत उत्कृष्ट रचना की है। यह बात सूर में नहीं है। सूरसागर की पद्धति पर वैसी ही मनोहारिणी और सरस रचना


  1. देखिए काशी नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित "गोस्वामी तुलसीदास" नामक ग्रंथ