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मन्मथ करै कैद अपनी में, जान जहतिया लावै॥

काव्य में इस प्रकार की उक्तियाँ ठीक नहीं होतीं। आचार्यों ने 'अप्रतीत्व' दोष के अंतर्गत इस बात का संकेत किया है। सूर भी एक ही आध जगह ऐसी उक्तियाँ लाए हैं; पर वे 'प्रेम फौजदारी' ऐसी पुस्तकों के लिए नमूने का काम दे गई हैं।

यहाँ तक तो सूरदासजी की कुछ विशेषताओं का अनुसंधान हुआ। अब उनकी पूर्ण रचना के संबंध में कुछ सामान्य मत स्थिर करना चाहिए। पहले तो यह समझ रखना चाहिए कि सूरसागर वास्तव में एक महासागर है जिसमें हर एक प्रकार का जल आकर मिला है। जिस प्रकार उसमें मधुर अमृत है उसी प्रकार कुछ खारा, फीका और साधारण जल भी। खारे, फीके और साधारण जल से अमृत को अलग करने में विवेचकों को प्रवृत्त रहना चाहिए। सूरसागर में बहुत से पद बिल्कुल साधारण श्रेणी के मिलेंगे। एक ही पद में भी कुछ चरण तो अनूठे और अद्वितीय मिलेंगे और कुछ साधारण, और कभी कभी तो भरती के। कई जगह वाक्य-रचना अव्यवस्थित मिलेगी और छंद या तुकांत में खपाने के लिए शब्द भी कुछ विकृत किए हुए, तोड़े मरोड़े हुए, पाए जायँगे; जैसे 'रहत' के लिए 'राहत', 'जितेक' के लिए 'जितेत', 'पानी' के लिए 'पान्यों' इत्यादि। व्याकरण के लिए लिंग आदि का विपर्यय या अनियम भी कहीं कहीं मिल जाता है। जैसे, 'सूल' शब्द कहीं पुल्लिंग आया है, कहीं स्त्रीलिंग। सारांश यह कि यदि हम भाषा पर सामान्यतः विचार करते हैं तो वह सर्वत्र तुलसी की सी गठी हुई, सुव्यवस्थित और अपरिवर्त्तनीय न मिलेगी। कहीं कहीं किसी वाक्य या किसी चरण तक को हम बदलदें तो कोई हानि न होगी। किसी किसी पद में कुछ वाक्य कुछ